आपको याद तो होगा ही कुछ समय पहले की ही बात है जब सिनेमाघरों के माध्यम से आपकी जेबों को लूटने की नाकाम कोशिशें की गईं की। वे लोग थे ठग्स ऑफ़ हिंदोस्तान के नाम से सिनेमाई करम करने वाले निर्माता, निर्देशक। ठीक वैसा ही करम एक बार फिर से करने की कोशिश की जा रही है। जिसमें पर्दे की भव्यता और चमकीले रैपर में लपेट कर मसाला आपको दिया गया है। इस चमकीले रैपर की आड़ में जो बासी और बेकार चॉकलेट लिपटी हुई है क्या उसे ये आम जनता सूंघ नहीं पाएगी? ये पब्लिक है सब जानती है।
खैर फिल्म शुरू हो उससे पहले ही जब हिंदी सिनेमा के नाम पर बनी इन फिल्मों में हिंदी भाषा की ही हिंदी (बेइज्जती) होने लगे या उसके नाम पर मजाक सा बनाया जाए तो आगे क्या होगा तेरा कालिया? फिल्म शुरू होने के साथ ही पर्दे पर लिखा हुआ जो आपके कानों को सुनाई देता है वो ये कि ‘इतिहास गवाह है कि चंद विभीषणों और जयचंदों की वजह से हम लोग गुलाम बनते आए हैं।’ लेकिन सोचने की बात ये है कि विभीषण ने ऐसा कब किया कि उस समय कोई गुलाम बन गया? जिसके वजह से ये आज पहली बार हमें सुनने को मिल रहा है।
खैर कहानी यूँ है कि – अंग्रेज़ों और उनके एक दरोगा ने शमशेरा के कबीले को बंदी बना कर शमशेरा को उसी के साथियों से मरवा दिया। सालों बाद उसी शमशेरा के बेटे ने अपने कबीले को आजादी दिलवाई इस तरह उसने अपने पिता की मौत का बदला भी लिया। कहानी है 1871 के भारत के एक काल्पनिक शहर काजा की जहाँ ऊंची जाति के लोग तो सुख से जी रहे हैं लेकिन इस गुलाम भारत के काजा शहर में कहीं कोई समस्या नहीं न कहीं कोई अत्याचार। और अगर है तो केवल गरीबों, खमीरन यानी दलितों पर। ये जाति के खमीरन काजा शहर से दूर जंगलों में रहते हैं। दूर जंगलों में रहने वाले ये खमीरन जब बन्दी बना लिए जाते हैं तो उस समय इन्हें मिलने वाली यातनाएं कुछ समय पहले आई ‘जय भीम’ फिल्म की याद दिलाती है। फिल्म में दिखाये गए काजा के करीब नगीना नाम का एक कस्बा भी है। जो मंदिरों का शहर है लेकिन लोग यहां अपने पाप छुपाने आते हैं काश इसी कस्बे में इस फिल्म की टीम जाकर भी कुछ समय बाद आपकी जेबों पर डाका डालने के करम करने वाले इरादों के पापों को भी धो आए। फिल्म ‘शमशेरा’ सुल्ताना डाकू की कहानी का फिल्मी रूपांतरण भी नजर आती है।
फिल्म में एक जगह ऋग्वेद की ऋचा ‘ब्राह्मणोस्य मुखमासीत, बाहू राजन्यः कृतः। उरू तदस्य यद्वैश्य:, पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥’ यानी ब्रह्मा के मुख से पैदा हुए विद्वान यानी ब्राह्मण, भुजाओं से पैदा हुए क्षत्रिय, उदर यानी पेट से पैदा हुए महाजन और पाँव/ तलवों/ नाखूनों से पैदा हुए दलित का संदर्भ भी अपने साथ लेकर चलती है। जगह जगह दलितों का अपमान भी उस समय ही नहीं बल्कि आज के भारत को भी दर्शाता है कि परिस्थितियाँ ज्यादा बदली नहीं हैं। ‘शमशेरा’ की कहानी का दूसरा केंद्र बिंदु दारोगा शुद्ध सिंह है। कहानी 1871 से 1896 तक की जरूर है लेकिन ये ऐसा दरोगा है जिसकी आज तक न कोई तरक्की हुई ना कोई बड़ा तमगा मिला। फिल्म की कहानी इतनी लंबी खिंचती चली गई है कि छलनी भी शरमाने लगे इसकी कहानी के छेदों को देखकर। संवादों का दोहराव ऐसा लगता है कि लेखकों के पास डायलॉग की कमियां पड़ गई और फिल्म के भारी भरकम बजट को पूरा करने के इरादे से बस ये इसे बढ़ाने में लगे रहे।
निर्देशक करण मल्होत्रा ने फिल्म की पटकथा अपनी पत्नी एकता के साथ मिलकर लिखी है। देखा जाए तो इस फिल्म के काल्पनिक शहरों नगीना और काजा के अलावा भी उस वक्त दुनिया में बहुत कुछ था। जिसके बारे में शायद निर्देशक, लेखक नहीं जानते होंगे और खामियाजा भुगतना पड़ेगा अब आम दर्शक को। जब मनोरजंन देखने जाने वाले दर्शक बाहर निकलकर सिर दर्द की दवाइयाँ लेने को मजबूर हो जाए तो समझ लीजिए आपने उन यश फिल्म प्रोडक्शन के नाम पर एक और धब्बा लगा दिया है जिसके दाग धोने में काफी समय लगने वाला है। पीयूष मिश्रा के लिखे संवाद असर नहीं छोड़ते सौरभ शुक्ला के किरदार के जरिये भी बस उस समय की प्रचलित पद्य संवाद शैली को ही पीयूष मिश्रा बेहतर तरीके से छू पाये।
निर्देशन के मामले में औसत से भी कम इस फिल्म का सेट करीब तीन हजार कारीगरों ने मिलकर दो महीने में तैयार किया था फिल्म में अपार भव्यता के बावजूद यह सेट मात्र सेट ही नजर आता है। एडिटिंग की बेशुमार कमजोरी , गानों की बेशुमार भरमार और आधे से ज्यादा टीम की बेशुमार कमजोर एक्टिंग के चलते यह फिल्म पूरी तरह से हमारे बॉलीवुड लोचा रिव्यू में निम्न श्रेणी की साबित होती है। रणबीर कपूर ने जरूर अच्छा अभिनय करने की कोशिश है। शुद्ध सिंह के किरदार में खलनायक बने संजय दत्त एक बेहतरीन खलनायक के किरदार से पूरा न्याय करते हुए जमे। वाणी कपूर, इरावती हर्षे न ज्यादा मोहती हैं न कुछ करती हैं। सौरभ शुक्ला और रोनित रॉय फिल्म के जिस भी फ्रेम में जब जब नजर आते हैं उसे मजबूत करने के लिए आते हैं।
कुल मिलाकर पटकथा, निर्देशन, सिनेमैटोग्राफी, गीत-संगीत आदि हर डिपार्टमेंट में चूकती इस फिल्म को बस टाइमपास के लिए देखने की हिम्मत हो या आपके पास भी बेहिसाब पैसा हो, तो जाइये देखिए और देखने के बाद फिर सिर दर्द या कुछ समस्याओं के लिए डॉक्टरों के इलाज पर खर्च कीजिए। आपका पैसा आपका पैसा है हमारा थोड़े ही। हाँ ऐसी फिल्में सिनेमा के नाम पर उन संसाधनों की बर्बादी जरूर है जो आपको मिले हैं।