हिंदी साहित्य में काव्य को वाङ्गमय का प्राण माना गया है। अर्थात काव्य साहित्य की परंपरा का वह वाचक है जो किसी के मन से निकली आह को आपकी पीड़ा का परिचायक बना देता है। किसी के मन में उपजी प्रेम पौध की सुगंध में आपके मन को महका देता है। किसी के सुख में तो किसी के दुख में अंतर्मन को भावविभोर और विह्वल कर देता है। काव्य वाङ्गमय का प्राण इसलिए भी है क्योंकि यह ‘सबरस’ को एकमात्र सटीकता, संक्षिप्तता और सूक्ष्मता के साथ बखान करता है। जीवन की कड़ियाँ चाहे कितनी ही भिन्न क्यों न हों, लौट-फेर कर काव्य ज्यामिति के एक बिंदु पर आकर अवश्य मिलती हैं। ठीक वैसे ही, जैसे एक मुसाफ़िर सम्पूर्ण जगत का चक्कर भले ही लगा लेता हो, लेकिन ठिकाना अपना घर ही होता है। ख़ैर, आज हम हिंदी साहित्य की काव्यधारा के नवयोत्तरकाल में अपना सफ़र तय कर रहे हैं। बड़ों की कहावत भी है कि कविता ईश्वर प्रदत्त होती है, कवि तो उस कविता को पन्ने पर उतारने का काम करते हैं। आज के युग में ऐसे कवियों की अगर गिनती की जाए जिन्हें कविता ईश्वर प्रदत्त मिली है तो ऐसे कवि ढेर में से मुट्ठी भर ही मिलेंगे। इन मुट्ठीभर लोगों का नाम लेते हुए मैं भाई अंकित चहल ‘विशेष’ जी का नाम लेना नहीं भूलूँगा। अगर मैं कहूँ कि अंकित जी मुक्तकों की दुनिया के बादशाहों में शुमार हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसके इतर भी हिंदी-उर्दू साहित्य की मुश्तरका तहज़ीब के दामन में अपने हुनर को तराशने का काम भी अंकित जी बहुत अच्छे से कर रहे हैं। मेरी बात से इत्तेफ़ाक़ आप उनके इस मुक्तक से कर लीजिए-
काठ का टुकड़ा बड़े फौलाद पर भारी पड़ेगा,
ये लड़ाका युद्ध में तादाद पर भारी पड़ेगा।
हौसलों ने तेवरों के पंख खोले हैं अभी,
ये परिंदा देखना सैय्याद पर भारी पड़ेगा।
अंकित जी की लेखनी चलती ही नहीं, बोलती भी है और बोलने पर उसकी जो गरज पैदा होती है, वह मंज़र-ए-आम के ज़ेहन-ओ-दिल पर सदियों से गहराए बादलों की बारिश बनकर बरसती है। ऐसा लगता है कि ये शब्द न जाने कब से अपनी पीर निकाल बैठने को आमादा थे। इनका यह चुनौती से भरा लेखन काफ़ी अलहदा है। चार पंक्तियों से इसका तज़किरा कीजिये:
हर मुश्किल से हँसते-हँसते, निकल रहे हैं।
एक रस्ते से कई रस्ते, निकल रहे हैं।
जहाँ अकेला छोड़ दिया था, तुमनें मुझको,
उसी जगह से हर दिन दस्ते, निकल रहे हैं।
अंकित जी ने उपर्युक्त पंक्तियों में यह तो बताया ही है कि कठिन परिस्थितियों से निकलने के लिए क्या किया जा रहा है। लेकिन इन पंक्तियों को भी अगर प्रमाण की आवश्यकता पड़ी तो उसके लिए ‘कैसे’ का उत्तर भी इन्होंने खोज निकाला है। ज़रा देखिए, कितने शालीन अंदाज़ में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है:
मुसलसल काम में, हम डूबकर पल छिन निकालेंगे।
ये कोशिश है के दिल से, शब्द नामुमकिन निकालेंगे।
हमारे हौंसलों से बस, यही आवाज़ आती है,
मथेंगे मुश्किलों को, और अच्छे दिन निकालेंगे।
एक वक़्त था, जब महबूबा के नाम की शायरी और कविताएँ शायरों और कवियों के सिर चढ़ कर बोलती थी, जिसके आमाल में सामईन और पाठक महीनों-महीनों तक इश्क़ की तासीर-ओ-तबस्सुम में झूमते रहते थे। कईयों का गुज़ारा तो उन्हीं अलहदा कविताओं और शेरो-शायरी में झूमने से चल जाता था। लेकिन अब वक़्त वैसा नहीं है। अब वक्त केवल मोहब्बत और महबूब का नहीं है और न ही हरफ़न होने का। अब वक्त की दरकार को समझते हुए जनमानस को भी चलना होगा। ज़माने के ‘मॉडर्न’ होने के साथ-साथ मुश्किलों के सर पहाड़ों से भी ज़्यादा ऊँचे हो गए हैं। अब इन कठोर रास्तों को पार कर जाने का माद्दा भी शब्दों की नरमाई में ही है। यहाँ भी कवि का नरम-नरम कहन आपकी साँसों में रवानी घोल देगा-
ख़ुदा तक जब इबादत का इशारा पहुँच जायेगा।
ये तय है फिर बुलंदी पर सितारा पहुँच जायेगा।
लड़ेंगे हौसले हालात से किस्मत बदल देंगे,
तू चाहेगा तो मंज़िल तक खटारा पहुँच जायेगा।
अब इस मुक्तक की ख़ूबसूरती एक शब्द ‘खटारा’ पर केंद्रित है। एक वक्त था जब निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के पास सड़क साधन के तौर पर अधिकतर साईकल ही मिला करती थी। या अगर इक्के-दुक्के के पास ख़ुद की मोटर भी होती थी, तो वह किसी उच्च मध्यमवर्गीय परिवार या साहूकार का एकदम मरा-गुजरा स्कूटर होता था जो उनके नई मोटर ख़रीद लेने पर चलाने के लिए या तो व्यवहार में मिल जाया करता था या फिर ऐसे दामों पर, जिसे वह आदमी ले सकने में सक्षम हो; मिल जाता था। ये साईकल और इंजन वाली दुपहिया लोगों की रोज़मर्रा ज़रूरतों से लेकर निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में ‘स्टैण्डर्ड’ की कसौटी पर खरा उतरती थी। वो बात अलग है कि यह व्यक्ति को अधिकतर परेशान भी करती थी। अब एक बड़े दृष्टिकोण से देखें तो निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की जीवन नैया भी ऐसे ही खटर-पटर करती हुई, हिचकौले खाती हुई पार लगने के अवसर ढूँढती रहती है। निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में इसी संघर्षरत जीवन को ‘खटारा’ नाम का तमगा दिया गया है। मुक्तक में इस शब्द पर तब्सिरा और भी किया जा सकता है।लेकिन मैं संक्षिप्त में यही कहूँगा कि आंचलिक सुगंध से भरपूर यह शब्द इस एक मुक्तक की भाषा शैली और ज़्यादा पुष्ट कर देता है।
अभी तक आप अंकित जी के लेखन में चुनौती को चुनौती देने के अलहदा कहन से वाक़िफ़ हुए। अब आपको इनके लेखन के उस मोड़ पर ले चलता हूँ जहाँ इनके क़लम से मुफ़लिसों के नज़रिया बयान होता है जो इनकी नज़र की पारदर्शिता पर पाँच सितारा दिलाता है-
अभावों के ये आघातों में जीवन ढूँढ़ लेती है।
ज़रूरत बीनकर कचरे को साधन ढूँढ़ लेती है।
बड़ी बारीक रस्सी पर चले नटनी सी इतराकर,
ग़रीबी बेबसी के दौर में फ़न ढूँढ़ लेती है।
कवि का एक और नज़रिया जो मुझे बहुत पसंद आया, वह इनके सवालात का था। ये पंक्तियाँ देखिए-
रेशमी पाजेब की झंकार का हम क्या करें।
तुम हमें रोटी खिलाओ प्यार का हम क्या करें।
झोपड़ी में जल रही है एक डिबिया मौज से,
चाँद तारों से सजे संसार का हम क्या करें।
उर्दू अदब के बड़े शायर प्रो. वसीम बरेलवी कहते हैं कि-
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है,
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है।
अंकित भाई को हकपरस्ती का सलीक़ा अवश्य ही ईश्वरप्रदत्त है। उनकी लेखनी में यही बात है जो उन्हें घंटों पढ़ने या सुनने के लिए बाध्य कर देती है। एक और मुक्तक है कि जिस पर तब्सिरा न किया गया तो ‘सिलसिले रह जाएँगे’ पर समीक्षात्मक दृष्टिकोण से बेईमानी होगी-
संघर्षी बाँहों में जय के, किस्से तमाम पलते हैं।
मंज़िल से पहले रस्तों पर, अनगिन मक़ाम पलते हैं।
दूर हटाकर मजबूरी, मज़दूरी से पढ़ने वालों,
दुनिया देख रही है तुम में, कितने कलाम पलते हैं।
एक कवि या शायर का सामाजिक नज़रिया निष्पक्ष होना चाहिए, इस कसौटी पर अंकित जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं। हक़ीक़ी शायर मुकेश आलम साहब का एक शेर इनकी सच्चाई की पेश-ए-ख़िदमत है-
रेगज़ारों में समंदर की कहानी सुनकर,
प्यास इतनी थी कि हम रो पड़े पानी सुनकर।
कवियों और शायरों की ख़ूबी ही यह है कि वो समाज के दुख को अपना दुख समझते हैं, और अगुआई करते हुए उनकी बात को जनमानस से शासन और प्रशासन तक पहुँचाते हैं। आज अगर हम भीतरी तंत्र से अपने हक़ के लिए लड़ते-भिड़ते युवाओं और लोगों को देखते हैं, तमाम सवालात से सरकार को मचलते हुए और बेचैन देखते हैं तो यह बात साबित होती है कि कविता और शायरी लोगों में इंक़लाब फूँक देने में माहिर है। शायरा दीपशिखा सागर कहती जो कहती हैं, वह मैं कविता और शायरी की तर्जुमानी में पहली सफ़ में रखता हूँ-
चमन के सारे के सारे गुलाब अपनी जगह,
मेरी नज़र का मगर इंतिख़ाब अपनी जगह।
हर एक चीज़ का अपना मक़ाम होता है,
चराग़ अपनी जगह; आफ़ताब अपनी जगह।
आइये, इसके इतर अब अंकित जी के इश्क़नामे की ओर रुख़ कर लिया जाए। कवि मोहब्बत की मुख़्तलिफ़ चाशनी से पगी हुई गुझिया का स्वाद भी देने में सक्षम हैं। मोहब्बत के अहसासात और जज़्बात उनकी इन पंक्तियों में खुल कर आते हैं-
हमें ख़ुदरंग होना भी पड़ेगा।
किसी के संग होना भी पड़ेगा।
मुसीबत में अगर दरकार होगी,
किसी का अंग होना भी पड़ेगा।
गोपालदास नीरज जी अपने एक बॉलीवुड गीत में लिखते हैं-
गिराने से डरता है क्यों?
मरने से डरता है क्यों?
ठोकर तू जब तक न खायेगा,
पास किसी गम को न जब तक बुलाएगा,
ज़िन्दगी है चीज़ क्या नहीं जान पायेगा,
रोता हुआ आया है रोता चला जाएगा।
बड़े लेखकों के अनुसार कहूँ तो ज़िन्दगी केवल मोहब्बत और अम्न है। इस बात को जानने और समझने में कई लोग बरसों लगा देते हैं, कई जान ही नहीं पाते। क्योंकि ज़िन्दगी नाम के सर्कस में क़रीने से नाचना हर किसी के बस की बात नहीं। हर रचनाकार अपने कहन से इस बात को समझाने का प्रयास करता है, पुस्तक में अंकित जी ने भी अपने अनुसार यही बात कहने की एक कोशिश की है-
न जोड़ा ज़र न तो दरबार की दौलत कमाई है।
फ़क़ीरों ने असल संसार की दौलत कमाई है।
दिलों से जोड़कर रिश्ते नफ़े नुकसान कब देखे,
बड़ी मुश्किल से हमनें प्यार की दौलत कमाई है।
अंकित भाई का इश्क़ औरों से काफ़ी जुदा है, जिसमें सामाजिकता का अंश बख़ूबी झलकता है। वैचारिक, सामाजिक और आर्थिक, इसी तरह के कई अन्य स्टैण्डर्ड के लोगों पर नाप-तौल कर अक्सर लोग मोहब्बत करते हैं। मोहब्बत का यह अंदाज़ मुझे नहीं भाता। पर यहाँ कवि की मोहब्बत पर रक्स करने को जी चाहता है। हाशिये पर के लोगों से जो लेखक जुड़ गया, वो लोगों की रग़ों में उतर जाता है। जैसे बाबा नागार्जुन। मेरे इस कथन को पुष्ट करता हुआ एक मुक्तक देखें-
दाँव इश्क़ की इस चौसर पर, अच्छे भले लगा बैठे।
दौलत इज़्ज़त, ताकत, रंगत, सब कुछ तले लगा बैठे।
हमसे पूछो हमने ख़ुद को, क्या से क्या कर डाला है,
जिससे दुनिया दूर रही हम, उसको गले लगा बैठे।
एक शायर के तौर पर भी ख़ुद को पुख़्तगी से पेश करते हैं अंकित जी। शायराना आगाज़ पर तब्सिरा इन्हीं के एक शेर से शुरू कर रहा हूँ-
दरो दीवार से ज़्यादा दरारें दरमियाँ अपने,
अगर रिश्ता रहेगा अब यक़ीनन हादसा होगा।
शेरों का मुख़्तलिफ़ कहन शायरों की पहचान बनता है। क़िताब को पढ़ते हुए मैं कई बार अचंभित हुआ। हिंदी व्याकरण के साथ उर्दू अरूज़ पर भी अच्छी पकड़ बनाई है शायर ने। एक मतला एक शेर तो मुझे बहुत ही ज़्यादा छू गए-
दो जनों की बात उलझी, और लश्कर आ गये।
नफ़रतों से लैस होकर, लोग बाहर आ गये।
अब कोई लड़कर मरे या, फिर जिये कोई यहाँ,
आपको मतलब भला क्या, आप तो घर आ गये।
ऐसे ही ढेरों मुक्तकों, गीतों, घनाक्षरी, शेरों और ग़ज़लों से रची-बसी क़िताब का नाम है ‘सिलसिले रह जाएँगे।’ मैंने केवल हिंदी व उर्दू की एक-एक विधा के ज़रिए तब्सिरा करने का प्रयास किया है। क़िताब का हर पन्ना अलग-अलग मौजूँ पर अपनी बात पुख़्तगी से रख सकने में सक्षम हुआ है। एक बात है संग्रह में जो खटकती है। उर्दू के शब्दों में लफ्ज़ के साथ नुक़्ते का सही तरह से मेल न बैठना, और कहीं-कहीं छंदों में मात्रा के चलते पंक्ति का सौंदर्य कम हो जाने जैसी घटनाएँ हुई हैं। अपनी इस बात से मैं अंकित जी के लेखन पर सवालिया निशान नहीं लगा रहा। हो सकता है यह टंकड त्रुटि के चलते हुए हो या प्रकाशक के अत्यधिक तेज़ दिमाग़ के घोड़े दौड़ने की वजह से हुआ हो, कुछ भी हो सकता है। मैं केवल यही कहूँगा कि आप कविताप्रेमी हैं, सामाजिक सरोकार से सम्बंधित व्यक्ति हैं और वास्तविक कविता और शायरी पढ़ना चाहते हैं, तो यह क़िताब आपके लिए ही है। अंकित जी के शानदार लेखन के मद्देनजर उन्हें पुस्तक प्रकाशन हेतु बधाई और इसकी सफलता हेतु शुभकामनाएँ। अंत में अंकित जी के फ़ानी लहज़े के लिए उन्हें मनीष शुक्ल साहब का एक शेर सौंपता हूँ:
किसी को साथ ले लेना किसी के साथ हो लेना,
फ़क़ीरों के लिए अच्छा-बुरा कुछ भी नहीं होता।