साधुनां दर्शनं पातकनाशनम्। अर्थात संत के दर्शन से पाप नष्ट होते हैं। भगवान की जब कृपा होती है, अंतरात्मा भगवान जब प्रसन्न होते हैं तब साधु-संगति की रुचि होती है।
जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये। (विनयपत्रिकाः 136.10)
चैतन्य का अर्थ है– ज्ञान और महा का अर्थ है– महान, प्रभु का अर्थ है महाप्रभु। भक्ति परंपरा में महाप्रभु का नाम पूजनीय रूप में आता है। भजन गायन की शैली की उत्पत्ति की। जाति गत बंधनों को तोड़ सद्धावना और भाईचारे की भावना तथा ऊंच नीच की सोच को दूर करने की शिक्षा दी। वे पहले महापुरुष थे जिन्होंने संकीर्तन को गलियों मोहल्लों तक पहुंचाया। इसके पूर्व यह एकांत तक सीमित था जो आनंद भक्ति तथा तप से मिलता है उसे कीर्तन के माध्यम से देश के कोने कोने में पहुंचाया। उनके मतानुसार कीर्तन वह है जहां कीर्ति और तन का मिलन होता है जिससे भक्ति को नये आनंद का विराट रूप मिलता है।
कीर्तन की महत्ता को श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति में रानी मीरा ने सब कुछ त्याग कर पग में घुंघरू बांध नृत्य किया कीर्ती और तन को मिला भक्ति के ऐसे स्वरूप को प्रस्तुत किया जो एक भक्ति भाव की अनूठी मिसाल है। चैतन्य महाप्रभु सगुण भक्ति के उपासक थे ईश्वर का सगुण रूप जो अपरिमित शक्तियों और गुणों से पूर्ण है उन्हें मान्य रहा। चैतन्य महाप्रभु द्वारा शुरु किये गये महामंत्र ”नाम संकीर्तन“ का प्रभाव आज विश्व भर में है।
गौडीय वैष्णव संप्रदाय की स्थापना उन्होंने की। बचपन का नाम विश्वंभर था लेकिन सभी उन्हें “ निमाई “ कह कर पुकारते गौर वर्ण होने के कारण “गौरांग”, “गौर हरि“ तथा “ गौर सुंदर “ इत्यादि भी कहा जाता। उनकी लीलाओं को देख सभी अचंभित होते। छोटी आयु में ही न्याय और व्याकरण में पारंगत हुए। कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित कर अध्यापन का कार्य भी किया भगवत चिंतन में लीन रह राम और कृष्ण की करने लगे। इनके समतुल्य ऐसा कोई दूसरा आचार्य नहीं था जिसने जनता जनार्दन को चैतन्य के समान प्रभावित किया हो।
चौबीस वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम का त्याग कर संन्यास लिया इनके गुरु केशव भारती थे। चैतन्य महाप्रभु के जीवन में कई अलौकिक घटनाएं हुईं जिनसे इनके विशिष्ट शक्ति संपन्न होने का परिचय मिलता है। एक बार उन्होने अद्वैत गुरु को अपने विश्व रूप का दर्शन कराया। नित्यानंद प्रभु ने इनके नारायण रूप तथा श्री कृष्ण रूप के दर्शन किये। इनकी माता शची देवी ने नित्यानंद प्रभु और इनको बलराम और कृष्ण के रूप में देखा। चैतन्य-चरितामृत के अनुसार उन्होंने कई कोढ़ियों और असाध्य रोगों से पीड़ित रोगियों को रोगमुक्त किया।
न्याय शास्त्र में वह कितने निपुण थे, उसे इस प्रसंगानुसार समझा जा सकता है। उनके एक मित्र थे,पंडित रघुनाथ। वे भी विद्वान थे। कई शास्त्रों का अध्ययन किया हुआ था तथा न्याय शास्त्र पर पुस्तक लिखी। उन्हें पूरा भरोसा था कि विद्वान उनकी पुस्तक की बहुत सराहना करेंगे जिससे उनकी ख्याति बढ़ेगी। उन्हें पता था कि चैतन्य भी शास्त्रों के विद्वान हैं अतः क्यों न उनसे अपनी पुस्तक पर सलाह ली जाए दोनों नाव में गंगा नदी पार कर रहे थे पं रघुनाथ ने कहा मित्र! मैंने एक पुस्तक लिखी है तुम इसे एक बार पढ़ लो कोई कमी हो तो बताना! चैतन्य महाप्रभु बोले मैंने भी एक पुस्तक लिखी है, पहले आप इसे पढ़ लें। पं रघुनाथ ने जब चैतन्य द्वारा लिखित पुस्तक पढ़ी तो वे उदास हो गये चैतन्य ने पूछा क्या बात है मित्र? आप कुछ टिप्पणी नहीं कर रहे हैं? पं. रघुनाथ बोले इतना अद्भुत साहित्य लिखा है कि मेरे मन में उदासी छा गयी सच तो यह है चैतन्य मैंने भी ठीक इसी विषय पर लिखा लेकिन आपकी रचना पढ़ने के बाद मैं यह समझ गया हूं कि मेरी पुस्तक को कोई मान्यता नहीं मिलेगी। मेरी मेहनत व्यर्थ हो जाएगी। इसे सुन चैतन्य महाप्रभु ने अपनी रचना को गंगा में बहा दिया और बोले “बस मित्र इतनी सी बात! ख्याति आपको ही मिलेगी”।
इस प्रसंग की सीख है कि एक मित्र के लिये यह एक मित्र का त्याग था। ईश्वर ऐसे त्याग को लौटाता ज़रूर है। भले ही उस रचना से चैतन्य को ख्याति न मिली हो, लेकिन अपने त्याग के स्वभाव के कारण उन्हें पं रघुनाथ से कहीं अधिक ख्याति मिली लिहाज़ा जीवन में जब भी त्याग करने का अवसर आए तो त्याग ज़रूर करें। जब आप इस दुनिया को कुछ देते हैं तो दुनिया बनाने वाला उससे अधिक आपको लौटाता है।
ईश्वर प्रेम के महान दूत तथा पवित्र भगवन्नाम के सामूहिक कीर्तन के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु का जन्म बंगाल प्रांत के नवद्वीप नगर के श्रीधाम मायापुर में 18 फरवरी 1486 में हुआ। वे पिता जगन्नाथ मिश्र एवं मां शची देवी की दसवीं संतान थे जो आगे चल कर निमाई पंडित के नाम से प्रसिद्ध हुए और भगवान कृष्ण के प्रति उनको और संन्यास आश्रम ग्रहण करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु कहलाए उनका जीवन शिक्षामृत रहा। कीर्तन के माध्यम से श्री कृष्ण की भक्ति करने में अपने को पूरी तरह रमा लिया। उनकी सामूहिक कीर्तन मंडली बंगाल के जीवन का अभिन्न अंग बनी। बंगाल के भक्ति आंदोलन को चैतन्य ने एक नया मोड दिया। पुरी जा कर उन्होने वैष्णव धर्म को प्रसारित किया वह राधा कृष्ण के अनन्य अनुयायी थे। उनका दिया मंत्र “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ” है जिसे भक्त गण आज भी बडी आस्था से गाते और बोलते हैं।
भगवान कृष्ण के अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण उनके असंख्य अनुयायी हो गये। सबसे पहले नित्यानंद प्रभु व अद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने इन दोनों ने भक्ति आंदोलन को तेज गति दी। चैतन्य महाप्रभु ने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झांझ, मंजीरे, आदि वाद्य मंत्र बजा ऊंचे स्वर में हरि नाम संकीर्तन करना शुरु किया। इसका व्यापक और सकारात्मक असर भक्तों पर पडा। वह सांसारिक वस्तु प्रदाता नहीं बल्कि करुणा तथा भक्त के प्रदाता हुए। विद्वानों द्वारा उनकी भक्ति के नृत्य, संगीत और संकीर्तन की तुलना एक ऐसे लोक से की है जिसकी रीति प्रीति आज भी प्रासंगिक है। लोक इच्छाओं से मन को हटा कर उसे मोहन में लगाने का मार्ग उन्होंने ही दिखाया। असंख्य श्रद्धालुओं को अब घर द्वार, परिवार, संसारी विषय भोग कुछ भी नहीं जा रहा। हरिनाम संकीर्तन में वे इतने रमे हैं कि उन्हें अन्य बातों से कुछ लेना देना नहीं संगीत की दुनिया के नामी सितारे अपनी संस्कृति, संगीत और वाद्यों के साथ चैतन्य महाप्रभु के नाम संकीर्तन को आवाज़ लय और ताल में समाहित कर अपनी शैली में प्रस्तुत कर रहे हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने उस प्राचीन वृंदावन को प्रकाशमान किया जिसकी पावन धरती पर श्री कृष्ण और उनकी आहादिनी शक्ति राधा ने अपनी लीलाएं रचायीं यदि चैतन्य वृंदावन की धरती पर न आते तो वृंदावन आज मिथक रह जाता। लगभग विलुप्त हो चुके वृंदावन को नये सिरे से भक्ति के पूजनीय स्थल के रूप में स्थापित किया। विद्वानों के अनुसार यदि चैतन्य महाप्रभु के चरण वहां नहीं पडते तो कृष्ण-कन्हाई की यह लीला भूमि मिथक रह जाती। उसे बसाया। चैतन्य और उनके भक्त भजन कीर्तन में ऐसे लीन व भाव विभोर हो जाते कि उनके नेत्रों से अविरल अक्षर धारा बहने लगती। प्रेम, आस्था और रुदन का यह अलौकिक दृश्य हर किसी को हैरान कर देता है। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की लेकिन उनमें एक ही उपलब्ध है जिसका नाम “शिक्षाष्टक “है इसमें वे कहते हैं कि श्री कृष्ण ही आराध्य देव हैं। नारद की भक्ति से वे प्रभावित थे और उन्हीं की भांति कृष्ण कृष्ण जपते।
चैतन्य महाप्रभु ने विधवाओं को वृंदावन आ कर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया वृंदावन सदियों से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर भी जाना जाता है कहा जाता है कि विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोडा। इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरु हुई।
एक बार चैतन्य महाप्रभु (गौरांग) अपने प्रांगण में शिष्यों के साथ श्रीकृष्ण-चर्चा कर रहे थे और चर्चा करते-करते भाव-विभोर हो रहे थे। पास में एक बड़ा वटवृक्ष था…. घटादार छाया…. मनमोहक वातावरण.. इतने में एक डोली उस वटवृक्ष के नीचे उतरी। उसमें से एक दूल्हा बाहर निकला और विश्राम के लिए वहीं बैठ गया। डोली के साथ बाराती भी थे, वे भी वहीं विश्राम करने लगे। दूल्हे का सुन्दर रूप, उसकी विशाल एवं सुडौल काया, बड़ी-बड़ी आँखें एवं आजानुबाहू…. देखते ही गौरांग बोल उठेः “अरे, यह कितना सुंदर है ! कितना बढ़िया लगता है! लेकिन यह शादी करके आया है। अब यह संसार की चक्की में पिसेगा, भोग विलास से इसका शरीर क्षीण होगा, दुर्बलकाय बनेगा, विषय-विकारों में खपेगा। संसार की चिंताओं में अपना जीवन बिताने की इसकी शुरुआत हो रही है। हे कृष्ण ! यह तेरा भक्त हो जाय तो कितना अच्छा हो!” वह दूल्हा कोई साधारण आदमी नहीं था वरन् वे बड़े विद्वान एवं कवि थे। वे कविराज रामचंद्र पण्डित स्वयं थे। उन्होंने गौरांग के ये वचन सुने तो उनके हृदय में तीर की तरह चुभ गये किः ‘बात तो सच है।’
वे घर गये। दो दिन घर में रहे तो उन्हें लगा किः ‘यह तो सचमुच अपने को खपाने-सताने जैसा है।’ तीसरे ही दिन वे गौरांग के पास आये एवं उनके चरणों में गिरकर बोलेः ‘हे संतप्रवर ! मुझे बचाइये। ऐसी सुडौल काया है, कुशाग्र बुद्धि है फिर भी यह जीवन विषय विलास में ही खपकर बरबाद हो रहा है। अब मेरी जीवन-गाड़ी की बागडोर आप ही सँभालिये।” गौरांग का हृदय पिघल गया। उन्होंने कविराज रामचंद्र पंडित को गले से लगा लिया। उन्हें गुरुमंत्र की दीक्षा देकर प्राणायाम-ध्यान की विधि बता दी। थोड़े दिन तक वे गौरांग के साथ रहे एवं उनके अंतरंग शिष्य बन गये। ऐसे अंतरंग शिष्य बने कि गौरांग के मन के भाव जानकर अपने-आप ही तत्परता से उनकी सेवा कर लेते थे। गौरांग को इशारा भी नहीं करना पड़ता था। मानों, वे गौरांग की छायारूप हो गये।
एक बार गौरांग कीर्तन करते-करते ऐसी समधि में चले गये कि एक-दो दिन तो क्या, पूरे सात दिन हो गये, फिर भी उनकी समाधि न टूटी। सब शिष्य एवं विष्णुप्रिया देवी भी चिंतित हो उठी। आखिर इस सत्शिष्य रामचंद्र से कहा गयाः “अब आप ही कुछ करिये।”
उस वक्त गौरांग भाव-भाव में कृष्णलीला में चले गये थे। विहार करते-करते राधाजी का कुंडल यमुना के किनारे गहरे जल में कहीं खो गया था और गौरांग उसे खोजने गये थे। कविराज रामचन्द्र गुरुजी का त्राटक करते हुए उनके ध्यान में तल्लीन हो गये। ध्यान में वे वहीं पहुँच गये जहाँ गौरांग का अंतवाहक शरीर था। अब दोनों मिलकर खोजने लगे। कविराज ने देखा कि राधा जी का कर्णकुंडल किसी लता में फँस गया था। रामचन्द्र पंडित ने खोजा एवं दोनों ने राधाजी को अर्पण किया। राधाजी ने अपना चबाया हुआ तांबूल उनको प्रसाद में दिया वह प्रसाद चबाते ही उनकी आँखें खुली तो उसकी सुगंध चिंता में बैठे हुए समस्त भक्तों तक पहुँच गयी। भक्त दंग रह गये कि जो आनंद एवं सुगन्ध देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, वह राधाजी के प्रसाद की सुवास में है ! यह कितनी सुखदायी, शांतिदायी है !
संत-सान्निध्य एवं संयम में बड़ी शक्ति होती है। रामचन्द्र जा तो रहे थे भोग की खाई में किन्तु गौरांग के वचन सुनकर उनके सान्निध्य में आ गये तो ऐसे महान हो गये कि राधाजी के कर्णकुण्डल खोजने में अंतवाहक शरीर (सूक्ष्म शरीर) से गौरांग के भी सहायक हो गये।
भगवान श्री कृष्ण के संबंध में खास बात ये है कि बृज मंडल से निकल कर न जाने कब और कैसे वे ग्लोबल श्रीकृष्ण हो गये इसका किसी को पता ही नहीं चला अब पूरब से लेकर पश्चिम तक हर कोई कान्हा की भक्ति से सराबोर है चैतन्य महाप्रभु के महामंत्र की गूंज हर ओर सुनाई देती है।
सन 1533 में वे दक्षिण भारत की यात्रा कर जगन्नाथ पुरी लौटे। एक दिन श्री कृष्ण भक्ति चिंतन में भक्तों सहित नृत्य करते हुए समुद्र किनारे से गुजर रहे थे तब उन्हें दृष्टांत हुआ कि श्री कृष्ण जल विहार कर रहे हैं उनके दर्शनार्थ वह “हे प्रभु । हे कृष्ण कहते हुए सागर में समा गये और 48 वर्ष की कम आयु में अपना देह त्याग दिया। आगे उनके शिष्यों ने चैतन्य भक्ति संप्रदाय का प्रसार किया। उनके उपदेशों का सार है कि मनुष्य को चाहिये कि वह अपने जीवन का अधिक से अधिक समय भगवान के सुमधुर नामों के संकीर्तन में लगाए। यही अंतःकारण की शुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है।