हम उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं जिसने तमाम महामारियों के किस्से तो खूब सुने हैं, पर उन्हें कभी झेला नहीं! फ़िल्मों में देखा, तब भी मन को समझाया कि इसमें तो कुछ अधिक ही बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है। हमें तो भनक तक न थी कि आधुनिक विज्ञान और तकनीक के इस युग में हम किसी विकराल महामारी की चपेट में भी आ सकते हैं और कोई अदृश्य विषाणु हमें बेबस भी कर सकता है! लेकिन बीते दो वर्षों में कोरोना ने मौत का जो विकराल तांडव रचा है उसने हमें उन सुने हुए किस्सों के दर्द से रूबरू करा दिया है। शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा, जिसके यहाँ कोई संक्रमित न हुआ हो। सबने किसी न किसी को खोया ही है। यह दर्द हम सबने भोगा है।
लेकिन हम यह भी मानते हैं कि जिस निष्ठुर दुनिया में हम रह रहे हैं वहाँ मृत्यु के बाद कोई किसी को याद नहीं करता! संभवतः इसीलिए हम अक्सर मानवीय संवेदनाओं के पाषाण, मृतप्राय होने का शोक मना रहे होते हैं। ऐसे में ‘ग्रामीण पत्रकारिता विकास संस्थान’ एक अलग ही तरह की भावनात्मक पुस्तक लाकर इस धारणा को पूरी तरह से ध्वस्त कर देता है और संवेदनाओं के जीवित रहने का यक़ीन, अब पुख्ता होने लगता है। पुस्तक का नाम है, ‘बिछड़े कई बारी-बारी’ और इसका कुशल संपादन किया है, वरिष्ठ पत्रकार, संवेदनशील लेखक एवं ‘ग्रामीण पत्रकारिता विकास संस्थान’ के अध्यक्ष देव श्रीमाली जी ने।
यह पुस्तक कोरोना महामारी के चलते, असमय ही अपनों का साथ छोड़कर जाने वाले म.प्र.के सौ से भी अधिक कर्तव्यनिष्ठ पत्रकारों को समर्पित है। जब आम जनता से सड़कों पर बाहर न निकलने का निवेदन किया जा रहा था, तब यही लोग थे जो हमें पल-पल की जानकारी दे रहे थे। अपनी जान पर खेलकर ये हम तक हमारे शहरों के अस्पतालों का हाल, दवाई की किल्लत, स्वास्थ्य व्यवस्था एवं कोरोना विषाणु से जुड़ा हर तथ्य पहुँचा रहे थे। ये वे अनाम योद्धा थे जो अंत तक अपने कर्तव्य पथ से डिगे नहीं!
‘बिछड़े कई बारी-बारी’ में कोरोना काल में एक-एक कर बिछड़े इन्हीं पत्रकार साथियों की दास्तानें, उनके साथियों की ज़ुबानी कही गई हैं। उनके जीवन-संघर्ष की चर्चा है, कुछ सुनहरी यादें हैं, चले जाने की अथाह पीड़ा है और यह अफ़सोस भी कि कैसे एक दिन अचानक दुनिया भर की खबरें जुटाने वाला व्यक्ति स्वयं एक खबर बन जाता है! कोरोना ने आर्थिक रूप से भी पत्रकारों पर बुरा प्रभाव डाला। सबकी कठिनाइयों को समझने वाले, उनके समाधान हम तक पहुँचाने वाले पत्रकार का जीवन कितना कठिन होता है, यह उसका परिवार और संगी-साथी ही जानते हैं। इस पुस्तक का हर एक शब्द सच्चा है।
इस पुस्तक की भूमिका में रवीश कुमार ने अपने बेबाक अंदाज़ में साफ़-साफ़ लिखा है- “पत्रकारों को कोरोना फाइटर्स कहा गया लेकिन जल्दी ही उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। बेहद सामान्य कमाई पर जीने वाले पत्रकार संक्रमित हो चल बसे। दिल्ली में कुछ पत्रकारों की चर्चा तो हुई लेकिन गाँव, देहात और कस्बों की पत्रकारिता करने वालों को चर्चा भी नसीब नहीं हुई।” इसी में वे एक अन्य जगह लिखते हैं कि कैसे “एक पत्रकार की मौत के बाद उसके साथी अपने ही अखबार में उसके बारे में खुलकर नहीं लिख सकते थे। इलाज़ में लापरवाही हुई तो भी उसके बारे में चीख-चीखकर नहीं लिख सकते थे!”
पत्रकारों की दिनचर्या कैसी थी, यह पंकज चतुर्वेदी शब्दशः उतार देते हैं- “हमारे साथी पत्रकार अस्पताल भी जा रहे थे और श्मशान भी। वे कोविड से मारे गए लोगों के बीच भी थे और दवा की दुकान, पलायन कर पैदल जा रहे लोगों के बीच भी।”
इस पुस्तक को पढ़ते हुए हर वक़्त जो एक बात मेरे दिमाग में चलती रही, उसे पंकज जी ने सुस्पष्ट तौर पर लिख डाला है- “यह विडंबना है कि सरकार और समाज दोनों, आम पत्रकार से निष्पक्ष, त्वरित और सकारात्मक रहने की उम्मीद तो करता है लेकिन उसकी सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सुरक्षा की कोई माकूल व्यवस्था उपलब्ध नहीं कराता है।”आखिर ऐसा क्यों नहीं हो पाता है? इसका उत्तर सरकार को देना ही चाहिए, ऐसी नीतियों का निर्माण होना चाहिए जिससे कि प्रतिकूल परिस्थिति होने पर पत्रकार एवं उसके परिवार को आर्थिक परेशानियों से न जूझना पड़े और न ही बीमार होने पर इधर-उधर भटकना पड़े। जो हर वक़्त देश के लिए खड़ा रहता है, उसके साथ खड़े होने का दायित्व सरकार का नहीं तो किसका हो? ऐसे कई प्रश्नों को मन में लिए मैं भारी हृदय से पुस्तक खत्म करती हूँ।
‘बिछड़े कई बारी-बारी’, कई मायनों में एक अनमोल दस्तावेज है। यह एक ऐसा भावुक दस्तावेज भी है जो आँसुओं से लिखा गया है और इसका एक-एक शब्द असह्य दुख के सागर को चीरकर निकला है। इसीलिए इस संकलन की बधाई देते हुए हृदय कहीं भीतर से कचोट भी रहा है। लेकिन इस श्रमसाध्य कार्य और पुस्तक के लिए देव श्रीमाली जी निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं क्योंकि संवेदनाओं को सहेजने का काम आसान नहीं होता! यह उनके जैसा संवेदनशील, निष्ठावान पत्रकार ही कर सकता है! बिछड़े साथी के लिए आँखें न जाने कितनी बार भर आती हैं! न जाने कितनी बार उसके साथ बिताया समय याद आता है। न जाने कितनी बार यूँ लगता है कि वह गया ही कहाँ! बस, अभी ही पुकार लेगा! इन सब अहसासों से गुजरते हुए इस पुस्तक का संपादन, निश्चित ही काफी भावपूर्ण एवं पीड़ादायक रहा होगा।
‘ग्रामीण पत्रकारिता विकास संस्थान’ एवं देव श्रीमाली जी ने इस पुस्तक ‘बिछड़े कई बारी-बारी’ के माध्यम से न केवल साथी पत्रकारों को श्रद्धांजलि ही दी है बल्कि उनका नाम भी अमर कर दिया है। प्रदेश के दिवंगत पत्रकार साथियों के प्रति उनकी सद्भावना तथा स्मृति को जीवंत बनाए रखने का यह प्रयास अत्यधिक सराहनीय एवं स्तुत्य है। अपने-आप में इस तरह की एक यादगार पुस्तक पाठकों तक पहुँचाने के लिए लोकमित्र प्रकाशन को भी साधुवाद।
कोरोना काल में बिछड़ गए साथियों को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।