एक कहानी सुनाता हूँ आप सभी को। किसी शहर में एक सम्पन्न नगर सेठ रहते थे। वह अपने लिए एक भव्य आलीशान भवन बनवा रहे थे। वह चाहते थे कि महल का निर्माण जल्द से जल्द हो जाए, जिसके लिए उन्होंने मजदूरों को काम पर लगाए हुए था। सुबह से शाम तक सभी मजदूर मिलकर रोज दीवार और छत खड़ी करते लेकिन वह गिर जाती थी। नगर सेठ को कुछ नहीं समझ आ रहा था कि उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। कभी वह इसे भूत-प्रेत का प्रकोप समझ रहा था या फिर किसी की साजिश। क्योंकि लगातार असफलता होने के बाद हमलोग भूत-प्रेत, तंत्र तंत्र-मंत्र, या फिर दूसरों की भूमिका को खोजने लगते हैं, नगर सेठ भी यही समझने लगा। तब एक अनुभवी सामान्य जन ने उस नगर सेठ को भवन निर्माण से पहले एक मजबूत नींव बनाने की सलाह दी। तब नगर सेठ ने अगले दिन एक मजबूत नींव को बनवाना शुरू किया जिस पर भवन खड़ा किया जा सके। कुछ ही समय में एक बड़ा भवन बनकर तैयार हो गया।
हमारी भी स्थिति कुछ इसी तरह की होती है, बिना नींव तैयार किए जल्दबाजी में एक बड़ा भवन खड़ा करने का प्रयास। अतः आवश्यकता है कि हम पहले एक मजबूत नींव तैयार करें जो हमें एक बड़ा सपनों का भवन तैयार करने में मदद कर सकें और अपनी सफलता की ओर कदम बढ़ाया जा सके।
आज हर व्यक्ति सफल होना चाहता है, असफलता किसी को पसंद नहीं है। और ये बात समझ में भी आती है। शायद ही हमने इस ओर ध्यान दिया हो कि सफलता और विफलता घटनाओं को इंगित करती हैं व्यक्ति को नहीं। या तो हम कुछ करते हुए सफल होते हैं या कोई मील का पत्थर हासिल करते हुए या हम किसी काम में विफल हो जाते हैं या कोई मील का पत्थर हासिल नहीं कर पाते हैं। इसका अर्थ ये नहीं है कि हम पूरी तरह से सफल हैं या पूरी तरह से विफल हैं। हमारे कुछ पहलू ऐसे हो सकते हैं जिनमें हम पूरी तरह सफल न हों या किसी में पूरी तरह से विफल न हों। सफलतम व्यक्ति (अगर कोई ऐसी पदावली होती हो) का एक बड़ा बैंक बैलेंस हो सकता है, लेकिन वो एक अभिभावक या एक पति या पत्नी के रूप में हो सकता है पूरी तरह नाकाम हो। और वो व्यक्ति जो व्यवसाय में पूरी तरह नाकाम हो जाए, वो अविश्वसनीय रूप से एक अच्छा अभिभावक और एक अनोखा दोस्त हो सकता है।
सफलता और विफलता ऐसी शब्दावलियां हैं जिनका इस्तेमाल इस काम के लिए किया जाता है कि हम जीवन में किसी खास घटना के सिलसिले में क्या कदम उठाते हैं- इसलिए नहीं कि हम समग्रता में कैसे हैं। लेकिन अक्सर हम इस अंतर को देख नहीं पाते हैं।
हम अक्सर मानते हैं कि हम सफल हैं और हमारे बच्चों को भी सफल होना चाहिए। और अपने जीवन में या अपने बच्चों के जीवन किसी छोटे से पहलू में नाकामी का संकेत मिलने पर उखड़ जाते हैं। या हम ये मान लेते हैं कि हम नाकाम हैं लिहाज़ा ये सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि हमारे बच्चे नाकाम न हो जाएं! अगर बच्चा परीक्षा में फेल हो जाता है तो हम उसे नाकाम कहते हैं, हम इस तरह से पेश करते हैं कि जैसे वे अपनी बाकी की जिंदगी में भी नाकाम ही रहेंगे। जबकि हो सकता है बच्चा सिर्फ़ एक परीक्षा में फेल हुआ होगा और उसके जीवन में कई ऐसे पहलू होंगे जिनमें वे सफल रह सकते हैं। हम ये मानने के लिए तैयार नहीं होते कि बच्चे खेल में अच्छे हो सकते हैं, वे बहुत अच्छे सरोकारी मनुष्य हो सकते हैं, वे बहुत बड़े कलाकार हो सकते हैं और अनोखे गायक हो सकते हैं, अच्छे वक्ता या रचनात्मक समस्या को हल करने वाले हो सकते हैं, वे ईमानदार और मददगार हो सकता है, उनमें व्यक्ति के रूप में अनोखे गुण हो सकते हैं. हम इन सब चीज़ों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और उन पर विफलता का ठप्पा लगा देते हैं सिर्फ इसलिए कि वो एक परीक्षा में फेल हुए हैं!
अपने बच्चों को उनकी तमाम सामर्थ्यों और कमज़ोरियों के साथ, समग्रता में स्वीकार करने के लिए हमें ये समझने की ज़रूरत है कि सफलता और विफलता, घटनाओं को परिभाषित करने वाली शब्दावलियां हैं, लोगों को नहीं। इसका अर्थ ये है कि हम खुद पर नज़र दौड़ाएं और खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में भी देखें जिसे जीवन में कभी असफलता तो कभी सफलता मिलती है। हमें उन चीजों को स्वीकार करना चाहिए जिनमें हम नाकाम रहे और हमें अपनी नाकामी के बारे में बात करते हुए सहज रहना चाहिए। क्या हम अपने अतीत की नाकामियों को स्वीकार करते हैं और उनसे हमने क्या सीखा इसका लेखाजोखा रखते हैं? क्या हम इस बारे में सहज रहते हैं कि कुछ मामलों में अपनी नाकामी को अपने बच्चों को बता पाएं। क्या हम अपनी नाकामियों और उनसे निपटने के अपने तरीकों के बारे में होने वाली बात को रात के खाने के समय की बातचीत का अहम हिस्सा बना पाएं। तभी हम अपने बच्चों को भी नाकामी को जीवन की किसी अन्य घटना की तरह स्वीकार कर लेने के लिए मदद कर पाएंगें- सीखने के एक अवसर के रूप में- बजाय कि उन्हें पूरी तरह से नकार दें।
कुछ विफलता आनी ही आनी है- हमारे जीवन में और हमारे बच्चों के जीवन में। अपने बच्चों को ऐसे जीवन कौशलों से सुसज्जित करना जिनकी मदद से वे नाकाम होने की स्थिति में उसका इस्तेमाल अपने बारे में ज़्यादा गहरी समझ बनाने में कर सकें और परिस्थिति से नए सबक हासिल कर सकें- ये एक अनमोल उपहार होगा जो हम उन्हें दे सकते हैं- किसी भी बड़े से बड़े बैंक बैलेंस से भी ज़्यादा कीमती होगा ये उपहार। ये उन्हें लचीलेपन की अहमियत सिखाएगा- बुरे मौकों का सामना कर पाना और विपरीत स्थितियो को खुद पर हावी न होने देना सिखाएगा। जितना जल्दी वो जीवन के इस सबक को सीख लें उतना ही उनके लिए अच्छा रहेगा।
लेकिन बच्चे उसी से सीखते हैं जो वे देखते हैं और अनुभव करते हैं, उससे नहीं जो हम कहते हैं या जिस पर चीखते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि वे सफलता और विफलता के आसपास जीवन के सबक हमारे ही तरीके से सीखेंगे कि हम कैसे अभिभावक के रूप में सफलता और विफलता का अपने लिए अनुभव करते हैं और कैसे उनका सामना करते हैं। उन्हें ये देखने की जरूरत हैं कि हम विफलता को कैसे स्वीकार करते हैं। उन्हें हमें अपनी नाकामियों से सीखते हुए देखना चाहिए। उन्हें हमें गिरते हुए और फिर तेजी से खड़े होते हुए भी देखना चाहिए- नई ऊंचाइयों की ओर, बेशक कभी कभी फिर से गिर जाने के लिए भी। उन्हें ये भी देखना चाहिए कि कैसे हम कुछ मामलों में सफल रहते हैं और सफलता पर सहज बने रहते हैं। उन्हें देखना चाहिए कि हम सफलता की खुशी का कैसा अनुभव करते हैं।
संक्षेप में, उन्हें देखना चाहिए कि हम नाकामी और कामयाबी का कैसा अनुभव कर रहे हैं। लेकिन सबसे बढ़कर उन्हें ये देखने की ज़रूरत है कि नाकामी और कामयाबी हमारे जीवन की अस्थायी घटनाएं हैं, जीवन तय करने वाली स्थायी स्थिति नहीं। जॉन वूडन के शब्दों में, “सफलता कभी अंतिम नहीं होती, विफलता कभी मारक नहीं होती, साहस ही है जिसकी अहमियत होती है”।
विपरीत हालात के सामने साहस, समृद्धि के सामने विनम्रता को ही हमें बतौर अभिभावक, मॉडल की तरह पेश करना चाहिए। तभी हमारे बच्चे भी हमसे यही अनुभव लेंगें और इसी के ज़रिए वे इनके साथ जीना सीखेंगें। और तब, और केवल तभी, हम लचीले वयस्कों की तरह बड़ा होने में उनकी मदद कर पाएंगें, उनके जीवन में आने वाली तमाम चुनौतियों और खुशियों, सफलताओं और नाकामियों का सामना कर पाने लायक बना पाएंगें।
बच्चों के जीवन में अपने प्रभाव की शक्ति का कम आकलन कभी नहीं करना चाहिए- चाहे वो सकारात्मक हो या नकारात्मक हो। हमें सकारात्मक चीज़ों को बढ़ाने और नकारात्मक चीज़ों को न्यूनतम करने की कोशिश करते रहनी चाहिए।
शैक्षिक संस्थान जब विश्वसनीय और नैतिक नहीं रहे जबकि सम्यक शिक्षा विश्वास एवं नैतिकता के बिना ठहरती नहीं। शैक्षणिक संस्थान जब अपना दायित्व नैतिकतापूर्ण नहीं निभा सके, तब सृजनशील सामाजिक संस्थाओं, साहित्यकारों, रचनाकारों का योगदान अधिक मूल्यवान साबित होता है। साहित्यकार अपने वर्तमान समय में ही भविष्य में होने वाली घटनाओं को, परिवर्तनों की आहट को महसूस कर लेता है।
गांधी के तीन बंदरों की तरह- वक़्त देखता नहीं, अनुमान लगाता है। वक़्त बोलता नहीं, संदेश देता है। वक़्त सुनता नहीं, महसूस करता है। आदमी तब सच बोलता है, जब किसी ओर से उसे छुपा नहीं सकता, पर वक़्त सदैव ही सच को उद्घाटित कर देता है। सांप-छछूंदर की स्थिति है। न निगलते बनता है और न उगलते। आवश्यकता है वे अपने सम्पूर्ण दायित्व के साथ आगे आयें। अंधेरे को कोसने से बेहतर है, हम एक मोमबत्ती जलाएं। अन्यथा वक्त आने पर, वक्त सबको सीख देगा।
‘हस्ताक्षर’ के सभी रचनाकारों एवं प्रबुद्ध पाठकों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं…………….