कैसी विडंबना है कि जिस व्यक्ति की जयंती सारी दुनिया अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाती है, उनकी मृत्यु हिंसात्मक तरीक़े से हुई. यह गाँधी जी की ही हत्या नहीं थी यह उस विचार, उस सिद्धांत की हत्या का कुत्सित प्रयास भी था जिसे गाँधी ने अपने जीवन का मूल आधार बनाया था. उनके हत्यारों ने भले ही एक निर्जीव देह को देख उस समय उत्सव मना लिया हो लेकिन वे हमारे बापू को नहीं मार सके! यदि वो तीन गोली नहीं लगती, तो शायद गाँधी जी बाद में किसी रोग या अन्य प्राकृतिक कारण से स्वर्ग सिधारते. लेकिन जिस तरह उनकी हत्या हुई, उसने अहिंसावाद को और भी अधिक गहरे से रेखांकित कर दिया. कारण स्पष्ट है कि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, हमारे बापू का अस्तित्व केवल मोहनदास करमचंद गाँधी तक ही सीमित नहीं था. वे अपने विचारों के साथ तब भी सर्वप्रिय थे और आज भी जनमानस में बसे हैं. जैसे देह के निष्प्राण होने के पश्चात अजर-अमर, आत्मा जीवित रहती है वैसे ही गाँधी भी हम सबके हृदय में विद्यमान हैं. हर सच्चे भारतीय की रग में उनके सत्य का राग प्रवाहित होता है, अहिंसा की रागिनी धड़कती है. गाँधी सदैव प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि गाँधी मात्र एक व्यक्ति नहीं, सम्पूर्ण विचारधारा है.
आपने भी यह ख़बर सुनी होगी कि बापू के सम्मान में ब्रिटेन की सरकार ने एक सिक्का जारी करने की घोषणा की थी. निस्संदेह यह उनका सम्मान तो है ही लेकिन एक तथ्य और भी है. वो यह कि अंग्रेज़ी हुकूमत के अत्याचारों, प्रताड़ना और अमानवीय कुकृत्यों से इतिहास रंगा पड़ा है. इस शर्मिंदगी से बचने और स्वयं पर लगे कलंक को धोने के लिए भी यह एक आवश्यक क़दम था. अमेरिका में भी एक अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की निर्मम हत्या के बाद वहाँ की जनता ने आंदोलन प्रारंभ कर दिया था और तबसे नस्लवाद का वैश्विक विरोध तेजी पकड़ रहा है. विचारणीय है कि जहाँ आज सारी दुनिया भूल सुधार के तमाम यत्न कर रही है ऐसे में हम कहाँ हैं और किन बातों पर लड़ रहे हैं?
दुर्भाग्य है कि विश्व भर में पूजनीय और सबको सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले गाँधी जी का विरोध करने वाले लोग, उनके अपने ही देश में पनप रहे हैं. घृणा के बीज बो रहे हैं. एक ओर हम राष्ट्रप्रेम की माला जपते हैं और दूसरी तरफ़ राष्ट्रपिता को अपशब्द कहने वालों के विरुद्ध कोई कार्यवाही होती नहीं दिखती! न जाने, देश के प्रति यह किस तरह का प्रेम है जो शहीदों के अपमान को यूँ सहन कर लेता है!
आज भी ऐसे लोग मिल जाते हैं जो गाँधी जी का नाम सुनते ही मुँह बिचकाकर कहते हैं कि आजादी चरखा चलाने और लाठी से नहीं मिली! हाँ, भई मानते हैं कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान अतुलनीय एवं अविस्मरणीय है. देश को आजाद कराना किसी एक व्यक्ति के बस की बात हो भी नहीं सकती! महत्वपूर्ण है, लालच से दूर रह अपने उसूलों पर चलना. शांति से अपनी बात कहना, सबकी राह प्रशस्त करना. गाँधी विरोधी यह भूल जाते हैं कि गाँधी का व्यक्तित्व और कहन का प्रकार बहुआयामी है और जैसा वह समझ रहे यह उससे इतर और विशाल भी है.
चरखा प्रतीक है स्वावलम्बन और स्वाभिमान का, स्वदेशी उत्पाद को बढ़ावा देने का. गाँधी जी अपना काम स्वयं करने में विश्वास रखते थे. स्वच्छता पसंद थे. यदि हम भारतीयों ने मात्र ये दो बातें भी आत्मसात कर ली होतीं तो आज उनके निधन के सात दशक बाद ‘आत्मनिर्भर भारत’ या ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का राग अलापने की कोई आवश्यकता नहीं होती. इन संस्कारों की नींव बहुत पहले ही पड़ गई थी. हमारे पूर्वजों ने तो सदैव ही हमें उच्चतम जीवन मूल्यों को हस्तांतरित किया है ये हमारी मूर्खता रही कि हम ही उन्हें समय पर न सहेज सके और न ही उन्हें अपनाने की कोई सार्थक चेष्टा ही की.
साबरमती आश्रम में प्रायः गाँधीवादी उम्रदराज़ लोगों से मिलना होता है. इनमें से कई ऐसे हैं जिन्होंने बापू पर बहुत शोधकार्य किया है. वे आँखों में चमक लिए उनकी बात करते हैं तो मन को बहुत अच्छा लगता है. कुछ चेहरों पर निराशा की झलक उदास भी कर जाती है, जब वे बुझे ह्रदय के साथ ये कहते हैं कि “आज के दौर में शांति और अहिंसा की बात करना मूर्खता एवं अपना उपहास करवाने से अधिक कुछ नहीं!” मैं उनकी बातों को सुन बेहद शर्मिंदा महसूस करती हूँ कि जिस दौर की ये बात कर रहे हैं, हमने उसे क्या बना दिया!
सोचती हूँ कि जब हम अपराध के विरोध में खुलकर न बोले तो अपराधी ही तो हुए न! अन्याय को देख हमने अपनी ज़ुबान सिल ली, तो फिर हम न्यायप्रिय कैसे हुए? झूठ को जीतते देख ताली बजाने वाले, किस मुँह से ‘सत्यमेव जयते’ कह सकेंगे? मैं मुस्कुराते हुए उन लोगों से बस इतना ही कहती हूँ कि “अरे! आप चिंता न कीजिए, सब अच्छा होगा. बुरे दौर का भी अंत तय ही होता है. गाँधी जी की विचारधारा हताश भले ही दिख रही है पर जीवित है अभी और सदैव रहेगी”. न जाने मैं उन्हें कह रही होती हूँ या स्वयं को ही आश्वस्त करने का प्रयास करती हूँ लेकिन हर बार बापू की मूर्ति को प्रणाम करते हुए जब उनका शांत चेहरा और मृदु मुस्कान दिखती है तो उम्मीद फिर जवां होने लगती है. विचारों में दृढ़ता आती है और हृदय पुकार उठता है ‘सत्यमेव जयते’.
विश्वास गहराने लगता है जिस व्यक्ति की निर्मम हत्या भी उसके द्वारा प्रज्ज्वलित अहिंसा की मशाल न बुझा सकी, वह हमारे बीच से भला कैसे जा सकता है कभी! सदियाँ बीतती जाएंगी लेकिन सभ्यता की नज़ीर बन गाँधी एवं उनका बुलेटप्रूफ गाँधीवाद सदा स्थापित रहेगा. उनके हत्यारों को इससे बड़ा तमाचा और क्या होगा!