क्रान्ति की धधकती ज्वाला दुर्गा भाभी
(7 अक्टूबर 1907 -14 अक्टूबर 1999)
16 नवंबर 1926 की घटना है। शहर था लाहौर, भगत सिंह, भगवती चरण बोहरा समेत कई क्रांतिकारी इकट्ठे थे। बीच में एक फोटो पर माला पड़ी हुई थी। वो तस्वीर थी करतार सिंह सराभा की, 19 साल की उम्र में अमेरिका से अपने साथियों सहित भारत आकर सभी सैनिक छावनियों में सैनिक विद्रोह करने की योजना बनाने वाले करतार सिंह सराभा को 1915 में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। उसकी ग्यारहवीं बरसी पर गुरु मानकर करतार की फोटो हमेशा अपने साथ रखने वाले भगत सिंह ने एक दमदार भाषण दिया, उसमें भगत सिंह ने चंडी मां की बात करते हुए फिरंगियों को बाहर निकालने का आह्वान किया। उनके भाषण से एक महिला इतने जोश में आई कि आगे बढ़कर भगत के माथे पर तिलक लगा दिया। ये थी दुर्गा भाभी।
दुर्गा भाभी का क्रांतिकारी जीवन श्री भगवतीचरण वोहरा के साथ विवाह होने के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ, जो सरदार भगतसिंह के सहयोगी थे। क्रांतिकारियों में तथा स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों में महिला होने के बावजूद सबसे आगे रहने वाली श्रीमती दुर्गा देवी वोहरा को देशभक्त ‘दुर्गा भाभी’ के नाम से जानते हैं।
आपका जन्म 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद में हुआ था। उनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे, जबकि बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन में थानेदार थे। वे क्रांतिकारी देशभक्त श्री भगवती चरण वोहरा की पत्नी थीं, जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए किया तथा देश के लिए अपने पारिवारिक हितों का बलिदान कर दिया। दुर्गा भाभी (श्रीमती दुर्गा देवी वोहरा) श्री भगतसिंह की सहयोगी रहीं। पराधीन भारत को स्वाधीन बनाने में उनके तथा उनके परिवार के अप्रतिम बलिदान की तुलना नहीं की जा सकती। इनकी शिक्षा पाँचवीं कक्षा तक हुई। इन्होंने भारत को स्वतन्त्रता दिलाने का स्वप्न सँजोकर आजादी की लड़ाई लड़ने की प्रतिज्ञा करके पढ़ाई लिखाई छोड़ दी। ससुराल में अंग्रेज विरोधी वातावरण था, उसमें श्रीमती दुर्गा पूरी की पूरी रँग गई। पूरा घर खद्दर का प्रयोग करता था तथा वे अपने मित्रों को भी खद्दर के लिए प्रेरित करते थे। गाँधी जी द्वारा प्रेरित असहयोग आन्दोलन सफलता की ओर था, तभी चौरी-चौरा काण्ड हो गया और असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया गया, जो देशहित में नहीं था। इसलिए क्रान्तिकारियों को ठीक नहीं लगा और इन नौजवान क्रान्तिकारियों ने अपना अलग से संगठन बनाने का प्रण किया जिसमें दुर्गा भाभी का अभूतपूर्व योगदान था।
शुरू से ही पति भगवती चरण बोहरा का रुझान क्रांतिकारी गतिविधियों में था, भगवती को ना सिर्फ बम बनाने में महारथ हासिल थी बल्कि वो अपने संगठन के ब्रेन भी कहे जाते थे। भगत सिंह के संगठन ‘नौजवान भारत सभा’ का मेनीफेस्टो भगवती ने ही तैयार किया था। जब चंद्रशेखर आजाद की अगुआई में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के रूप में दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में फिर से गठन हुआ, तो भगवती को ही उसके प्रचार की जिम्मेदारी दी गई। एचएसआरए के मेनीफेस्टो को भी भगवती ने ही आजाद के सहयोग से तैयार किया जो कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में जमकर बांटा गया और पढ़ा गया। गांधीजी और उनकी अहिंसा की नीतियों में भरोसे के बावजूद तमाम कांग्रेसी नेता इन क्रांतिकारियों को काफी पसंद करते थे।
जब आगरा से आते वक्त लॉर्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन पर बम फेंका गया तो पूरी योजना बोहरा की थी। यशपाल का बम रखने में अहम् रोल था। गुस्से में गांधी जी ने अखबार ‘यंग इंडिया’ के 2 जनवरी के अंक में एक लेख लिखा ‘कल्ट ऑफ बम’। जिसमें गांधीजी ने बम समेत तमाम हिंसावादी तरीकों की आलोचना की, उन्होंने बम जैसे तरीकों से मिली आजादी पर सवाल उठाए, ऐसे तरीकों को कायरतापूर्ण बताया। गांधीजी सबके लिए पूज्य थे, उन पर सीधे कोई सवाल नहीं उठाता था, लेकिन भगवती चरण बोहरा ने तथ्यों के आधार पर पहली बार गांधीजी को जवाब देने की ठान ही ली। चंद्रशेखर आजाद ने भी इस जवाब को तैयार करने में उनकी मदद की। उस लेख का नाम रखा गया ‘फिलॉसफी ऑफ बम’। जिसमें लिखा था-
“There is no crime that Britain has not committed in India. Deliberate misrule has reduced us to paupers, has ‘bled us white’. As a race and a people we stand dishonoured and outraged. Do people still expect us to forget and to forgive? We shall have our revenge – a people’s righteous revenge on the tyrant. Let cowards fall back and cringe for compromise and peace. We ask not for mercy and we give no quarter. Ours is a war to the end – to Victory or Death.”
ऐसे माहौल में रह रही थीं दुर्गा भाभी, तो उनके विचारों में भी क्रांति का प्रभाव आना ही था। वो भी बम बनाना सीख गई। एचएसआरए के एक सदस्य विमल प्रसाद जैन ने कुतुब रोड, दिल्ली में हिमालयन टॉयलेट्स नाम से एक फैक्ट्री खोल रखी थी, जो असल में बम बनाने की फैक्ट्री थी, जहां दुर्गा और उनके पति बम बनाने में सहयोग करते थे। 19 दिसम्बर 1928 का दिन था, भगत सिंह और सुखदेव सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। भगत सिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगत सिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा भाभी इस बात से खुश नहीं थी कि स्कॉट बच गया क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। लाला लाजपत राय पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफी गुस्सा भरा हुआ था।
इधर लाहौर के चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा भाभी ने उन्हें कोलकाता निकलने की सलाह दी, उस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवती चरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे। तीनों अगले दिन लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे। सूट बूट और हैट पहने हुए भगत सिंह, उनके साथ उनका सामान उठाए नौकर के रूप में राजगुरु और थोड़ा पीछे अपने बच्चे के साथ आतीं दुर्गा भाभी। दो फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की टिकटें लेकर भगत सिंह और दुर्गा भाभी पति-पत्नि की तरह बैठ गए और सर्वेन्ट्स के कम्पार्टमेंट में राजगुरु बैठ गए। इसी ट्रेन में एक तीसरे डिब्बे में चंद्रशेखर आजाद भी थे, जो तीर्थयात्रियों के ग्रुप में शामिल होकर रामायण की चौपाइयां गाते हुए सफर कर रहे थे। पांच सौ पुलिस वाले ट्रेन और प्लेटफॉर्म पर थे, ऐसे में सभी का बचकर निकलना चमत्कार जैसा था। दुर्गा भाभी की वजह से देश के महान् क्रांतिकारियों की जान बच गई थी। ट्रेन सीधे कोलकाता की नहीं ली, क्योंकि इस पर सबकी नजर थी। आजाद रास्ते में उतर गए, कानपुर से उन्होंने लखनऊ के लिए ट्रेन ली, दुर्गा भाभी ने लखनऊ से भगवती चरण बोहरा को टेलीग्राम भेजा कि वो आ रही हैं, लेने हावड़ा स्टेशन आ जाएं। वहां से उन्होंने हावड़ा स्टेशन की ट्रेन ली। सीआईडी हावड़ा स्टेशन पर तैनात थी लेकिन वो सीधे लाहौर से आने वाली ट्रेन्स पर नजर रख रही थी। सब लोग सुरक्षित निकल गए। राजगुरु पहले ही बनारस के लिए निकल चुके थे।
दुर्गा भाभी यानी दुर्गावती देवी मूल रूप से बंगाली थीं, कोलकाता में कुछ दिन रहकर वहां के कई क्रांतिकारियों से मुलाकात की। वहां से वो फिर बच्चे के साथ लाहौर आ गईं। उसके बाद असेम्बली बम कांड के आरोप में भगत सिंह आदि क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए। दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने की खातिर अपने सारे गहने बेच दिए। तीन हजार रुपए वकील को दिए। फिर गांधीजी से भी अपील की कि भगत सिंह और बाकी क्रांतिकारियों के लिए कुछ करें। दुर्गा भाभी की ननद सुशीला देवी भी कम नहीं थीं, उन्होंने अपनी शादी के लिए रखा 10 तोला सोना भी क्रांतिकारियों के केस लड़ने के लिए उस वक्त बेच दिया था। सुशीला और दुर्गा ने ही असेम्बली बम कांड के लिए जाते भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को माथे पर तिलक लगाकर विदा किया था। इधर 63 दिन की भूख हड़ताल के बाद लाहौर जेल में ही जतिन्द्र नाथ दास यानी जतिन दा की मौत हो गई तो उनकी लाहौर से लेकर कोलकाता तक ट्रेन में और कोलकाता में भी अंतिम यात्रा की अगुवाई दुर्गा भाभी ने ही की। इधर उनके पति भगवती चरण बोहरा ने इरविन की ट्रेन पर बम फेंकने के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत सभी क्रांतिकारियों को छुड़ाने की योजना बनाई और इसके लिए वो रावी नदी के तट पर लाहौर में बम का परीक्षण कर रहे थे। 28 मई 1930 का दिन था कि अचानक बम फट गया और भगवती चरण बोहरा की मौत हो गई। दुर्गा भाभी को बड़ा शॉक लगा, लेकिन वो जल्द उबर गईं और देश की आजादी को ही अपने जीवन का आखिरी लक्ष्य मान लिया।
तब दुर्गा भाभी ने अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए पंजाब प्रांत के एक्स गवर्नर लॉर्ड हैली पर हमला करने की योजना बनाई। दुर्गा भाभी ने उस पर 9 अक्टूबर 1930 को बम फेंक भी दिया, हैली और उसके कई सहयोगी घायल हो गए, लेकिन वो घायल होकर भी बच गया। उसके बाद भी दुर्गा भाभी बचकर निकल गईं, लेकिन जब मुंबई से पकड़ी गईं तो उन्हें तीन साल के लिए जेल भेज दिया गया। बताया तो ये भी जाता है कि चंद्रशेखर आजाद के पास आखिरी वक्त में जो माउजर था, वो भी दुर्गा भाभी ने ही उनको दिया था।
एक-एक करके जब सारे क्रांतिकारी इस दुनिया में नहीं रहे तो दुर्गा भाभी के लिए काफी मुश्किल हो गई। बेटा भी बड़ा हो रहा था, पुलिस भी उन्हें बार-बार परेशान कर रही थी। लाहौर से उन्हें जिला बदर कर दिया गया। ऐसे में वो 1935 में गाजियाबाद चली आईं। जहां उन्होंने एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। दो साल के लिए कांग्रेस के साथ भी काम किया, लेकिन फिर छोड़ दिया। फिर उन्होंने मद्रास जाकर मांटेसरी सिस्टम की ट्रेनिंग ली और फिर लखनऊ में कैंट रोड पर एक मांटेसरी स्कूल खोला, शुरू में जिसमें सिर्फ पांच बच्चे थे। आजादी के बाद उन्होंने सत्ता और नेताओं से काफी दूरी बना ली। 1956 में जब नेहरू को उनके बारे में पता चला तो लखनऊ में उनके स्कूल में एक बार मिलने आए। नेहरू ने उनकी मदद करने की पेशकश भी की थी, कहा जाता है कि दुर्गा भाभी ने विनम्रता से मना कर दिया था। दुर्गा भाभी को मांटेसरी स्कूलिंग सिस्टम के शुरुआती लोगों में गिना जाता है।
मीडिया और सत्ताधीशों को उनकी आखिरी खबर मिली 1999 में, 14 अक्टूबर के दिन जब गाजियाबाद के एक फ्लैट में उनकी मौत हो गई। उस समय वो 92 साल की थीं। ये शायद उनके पति के विचारों का ही उन पर गहरा प्रभाव था कि पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले ही और इतने साहस के साथ गुजार दी और ना जाने कितनों को साहस से जीने की प्रेरणा दी। देश के लिए उसकी आजादी के लिए उन्होंने पति, परिवार, बच्चा और एक खुशहाल जीवन सब कुछ दांव पर लगा दिया, लेकिन आजादी के बाद जिस तरह से उन्होंने गुमनामी की चादर ओढ़ी और खुद को बच्चों की शिक्षा तक सीमित कर लिया, वो वाकई हैरतअंगेज था। शायद ये उनके सपनों का भारत नहीं था, जैसी उन्होंने कभी कल्पना की होगी।