वेद ज्ञान-विज्ञान के अक्षय भण्डार हैं। मानव की प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के दर्शन करने हैं तो वैदिक साहित्य का अनुशीलन करना चाहिये। वैदिक ग्रन्थों में राष्ट्रीयाया और लोकमंगल को भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। उदात्त भावनाओं के कारण वैदिक साहित्य काल और देश की सीमाओं को लाँघकर सार्वकालिक और सार्वदेशिक रूप में प्रतिष्ठित है।
वेदों ने हमें मातृभूमि-प्रेम की शिक्षा दी है, अथर्ववेद (12 /1/12)-का कहना है-‘माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्या: ‘ अर्थात् भूमि माता है और मैं पृथिवी का पुत्र हूँ। ‘नमो मात्रे पृथिव्ये” (यजु० 9/22) पृथ्वीमाता को प्रणाम है। वेद में मातृभूमि को चिन्मय रूपमें देखा गया है। ऋषि कहते हैं ‘उप सर्प मातरं भूमिम्’ (ऋक्० 10/18/10) मातृभूमि की सेवा करें। मातृ-ऋण तो रक्त की एक-एक बूँद से भी चुकाया नहीं जा सकता।
अथर्ववेद में पृथ्वी-सूक्त में भूमि के प्रति अनन्य भक्ति को अभिव्यक्ति दी गयी है। हे पृथ्वी! तुम हमारे पूर्वजों की माता हो, तुम्हारी गोद में जन्म लेकर पूर्वजों ने अनेक विक्रम-पूर्ण कार्य पूर्ण किये हैं–‘ यस्यां पूर्वे पूर्वजना विचक्रिरे’ ( अथर्व० 12/5)। पृथ्वी सूक्त में दीप्ति, बल और उत्तम राष्ट्र को प्रदान करने की प्रार्थना की गयी है और कहा गया है कि इस भूमि पर हम अविजित, अक्षत और आधातरहित होकर निवास करें– “अजीतो5हतो अक्षतोध्यष्ठां पृथिवीमहम्’ (अथर्व०12/1/11)।
ऋग्वेद में आदर्श जनतन्त्र के दर्शन होते हैं। राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, उत्थान और संगठन की चेतना को इस प्रकार स्वर दिये गये हैं-“वयं राष्ट्रे जागुयाम पुरोहिताः’ (यजु० 9/23) साथ ही यह बताया गया है कि हम स्वराज्य में सब के कल्याण के लिये प्रयत्न करेंगे–‘यतेमहि स्वराज्ये” (ऋक्० 5/66/6)। वेद में राष्ट्राध्यक्ष से सदैव राष्ट्र की उन्नति में तत्पर रहने की कामना की गयी है– ‘बुहद्राष्ट्र दधातु नः’ (अथर्व०)। राष्ट्र के निर्वाचित सदस्यों से अपेक्षा की गयी है कि वे राष्ट्र के अध्यक्ष के साथ एक स्वर में बोलें और राष्ट्राध्यक्ष भी उनके ज्ञान और शक्ति का पूरा उपयोग करें, ‘सभासदस्ते मे सन्तु सवाचस:। एषामहं समासीनानां वर्चो विज्ञान माददे’ (अथर्व 7/12/23)।
वेदों में व्यक्तिगत स्वार्थो से ऊपर उठकर समष्टि-भावना से प्रेरित होकर सबके मंगल की कामना की गयी है-. ‘स्वस्ति पन्थामनु चरेम’ (ऋक्० 5/51/15) हम कल्याण के मार्ग के पथिक बनें। हमारे हृदय एक समान हों- ‘समाना हृदयानि वः’ (ऋक्० 10/191/4)। वैदिक शान्तिपाठ में लोक-कल्याण की भावना के ऊँचे स्वर मुखरित हुए हैं- ‘भद्रं कर्णेभि: श्रृणुयाम’ (यजु० 25/21) अर्थात् कानों से हम सदा मंगल सुनें। हमारा सब कुछ कल्याणकारी हो–‘सर्वमेव शमस्तु नः (अथर्व०19/9/14)। हमारे सद्विचार और शुभ अभिलाषाएँ सफल हों, प्रकाशमान् देव हम सबको सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें–‘सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठठमाय कर्मणे’ (यजु० 1/1) वेदों में दैन्यभाव से रहित होकर पूर्ण आयु की कामना की गयी है–‘अदीनाः स्याम शरदः शतम्! (यजु० 36/24)
मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने विश्वबन्धुता और एकात्मभाव को देखा है–मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे’ (यजु० 36/18) मित्र की दृष्टि से मैं समस्त प्राणियों को देखूँ। हमसे कोई द्वेष न करे-‘मा नो द्विक्षत कश्चन’ (अथर्व० 12/1/24)। यह एकात्म दृष्टि ही हमको लोक-मंगल की चरमावस्थाकी ओर ले जाती है। इसके मूल में मानवीय आध्यात्मिकता है। यह भारतीय संस्कृति की अमर देन है। ऋग्वेद परस्पर सहयोग तथा मैत्रीभाव कों प्रदर्शित करते हुए कहता है ‘सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ (10/191/2) ऋग्वेद अर्थात् सभी को मिलकर चलना चाहिये और मिलकर बोलना चाहिये। वेद हमें सम्मार्ग में, अर्थात प्रेरित करते हैं-‘ऋतस्य पथा प्रेत’ (यजु० 7/45) अर्थात सत्य के मार्ग पर चलो। हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्प वाला बने–‘ तन्मे मन: शिवसडडल्पमस्तु’ (यजु० 34/1)। मेरी वाणी मीठी हो जाय और मैं मधुर वचनों का ही प्रयोग करूँ, इस सम्बन्ध में वेद में प्रार्थना है- ‘मधुमतीं वाचमुदेयम्’ (अथर्व० 16/2/2)।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं!