राकेश शंकर भारती का उपन्यास 3020 ई. सम्भवत: हिंदी साहित्य का ऐसा पहला उपन्यास है जिसकी कल्पना का आधार विज्ञान है। आज से पूर्व हमने जितने उपन्यास पढ़े हैं वह एक परिपाटी से बंधे दिखायी देते हैं। एक कहानी जो आरंभ, उत्कर्ष, पराकाष्ठा से गुज़रती हुई फल को प्राप्त करती है। इसके अंतर्गत प्रेम कथाएँ, सामाजिक, राजनीतिक उपन्यास आते हैं। हिंदी पट्टी में तथ्य और तर्क के माध्यम से अपनी बात कहने का अभाव रहा है इस दृष्टि से 3020 ई. उपन्यास इस सदी का महत्वपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा सूचनाओं, तथ्यों और तर्कों से भरा हुआ है। आश्चर्य की बात यह है कि लेखक जिस ढंग से हमारे समक्ष वैज्ञानिक तथ्य और आँकड़े प्रस्तुत करता है, उसे पढ़ता हुआ पाठक कहीं भी उब महसूस नहीं करता। पाठक के मन में बराबर कौतूहल बना रहता है। अमूमन पढ़ते और पढ़ाते समय हम समझते और समझाते हैं कि जहाँ सूचनाएँ और आँकड़े दिये जाते हैं वह समाचार है और ये काम अख़बार करता है। जहाँ कहानी है, कल्पना है वहाँ उपन्यास है। इस परिपाटी को राकेश शंकर भारती का उपन्यास 3020 ई. तोड़ता है। लेखक नयी संवेदनाओं को व्यक्त करने के लिए नयी अभिव्यक्ति, नयी शैली अपनाता है। हिंदी साहित्य में यह एक नया प्रयोग है। ऐसे में हमें यह बात समझनी होगी कि इस प्रकार की शैली या प्रयोग की यह शैशव अवस्था है इसलिए इससे परिपक्वता की उम्मीद करना इसके साथ नाइंसाफ़ी होगी।
उपन्यास की विशिष्टता की बात करें तो इसकी शैली भी अपने आपमें प्रयोगात्मक है। उपन्यास में तीन कहानियाँ समानाँतर चलती हैं जिनका आपस में कोई जुड़ाव नहीं अपने भिन्न-भिन्न रूप में भी कहानियाँ पाठक को बाँधे रखने में सफल रहती हैं। पहली कहानी तीन पीढ़ियों की कथा कहती है। यहाँ पीढ़ियों में अंतराल दिखायी देता है, परंतु तीनों एक दूसरे को समझने की कोशिश करते दिखायी देते हैं। दादा धर्मपाल, बेटा द्वारपाल और पोता रामपाल द्वारा लेखक कोरोना काल की कथा कहता है। कोरोना काल ने प्रत्येक व्यक्ति को आइसोलेट कर दिया है। प्रत्येक व्यक्ति मानसिक तनाव से गुज़र रहा है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है। जनता इतनी डरी हुई है कि वह पूरे महीने का राशन अपने घर में जमा कर लेना चाहती है। लॉकडाउन लग गया है। लोग बेरोज़गार हो रहे हैं। चारों ओर यही सुनायी दे रहा है ‘चेहरे पर मास्क और दो गज़ की दूरी है बहुत ज़रूरी’। फिर भी जनता कोई नियम मानने को तैयार नहीं है। शासन की मुस्तैदी का चित्रण करता हुआ लेखक कहता है—“पुलिस को लॉकडाउन सफल बनाने के लिए डंडे बरसाने पड़ रहे हैं। पुलिस लोगों को सड़कों पर दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही है, फिर भी लोग सड़क पर निकलने से बाज़ नहीं आ रहे।”1 इतना ही नहीं लेखक कोविड-19 के लक्षण, उपाय, उपचार के बारे में भी बात करता है। यह तो ऊपरी तह पर कहानी चलती है परंतु यहीं कहानी के भीतर झाँका जाये तो महीन कहानी के रेशे दिखायी देते हैं। यह महीन कहानी भारतीय समाज की जाति-व्यवस्था पर चोट करती है। लेखक जिस वर्ग से आता है उस वर्ग की आशा, आकाँक्षा, अभाव, पीड़ा, सपने ले कर आता है। इस कहानी में वही आशा, अभाव, पीड़ा, सपने गहराई से चित्रित हुए हैं। आज बेशक हम 21 वीं सदी में चले आये हैं, परंतु गाँवों में, छोटे शहरों में जाति व्यवस्था उसी तरह से कायम है, इसीलिए राकेश जी इस जाति-प्रथा से दादा, बेटा और पोता तीनों को प्रभावित दिखाते हैं।। दादा धर्मपाल अपने समय में समाज की तथाकथित निकृष्ट जाति की लड़की फूलवंती से प्रेम करते हैं। प्रेम की पींगे बढ़ाते हुए उनका फूलवंती के साथ शारीरिक संबंध बन जाता है और एक बेटा भी हो जाता है। ऐसी स्थिति में समाज के दवाब में आकर धर्मपाल अपनी प्रेमिका को मझधार में छोड़ देते हैं। बेटा द्वारपाल भी समाज की उसी तथाकथित भंगी जाति की लड़की से प्रेम करता है और समाज के दवाब में आकर उसे छोड़ देता है। लेखक सवर्ण द्वारा तथाकथित भंगी जाति की प्रेमिका को बीच में छोड़ देने की बात तो करता है, परंतु जाति संघर्ष दिखाने से चूक जाता है। वह धर्मपाल को समाज और धर्म भीरु दिखाता है। धर्मपाल कहता है—“प्यार जाति-धर्म, रंग, समुदाय, ऊँच-नीच की बंदिश नहीं मानता….मैं अपनी जगह सही था, मगर मुझमें समाज से लोहा लेने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए मैंने अपनी मुहब्बत की कुरबानी दे दी।”2 धर्म भीरु धर्मपाल के विचारों में आगे चल कर क्राँति आती है। वह अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद जब फूलवंती और अपने बेटे को देखता है तो उसे ग्लानि होती है और वह समाज की सारी मान्यताएँ ताक़ पर रखकर फूलवंती को अपनाता है तथा अपने बेटे को अपना नाम देता है। यह कहानी जब अपने उतार पर आती है तो अनेक नाटकीय मोड़ों से गुज़रती है जो बतौर पाठक हास्यास्पद लगता है। दादा धर्मपाल वृद्धावस्था में अपनी प्रेमिका को अपनाता है तो बेटा द्वारपाल अपनी प्रेमिका का समधी बन उसकी बेटी को अपनी बहू बनाता है। तीनों का तथाकथित भंगी जाति की लड़की से प्रेम करना यह संयोग लेखक का जाति व्यवस्था पर प्रहार है। एक सुखद स्वप्न की तरह लेखक आशा करता है कि समाज में बदलाव आयेगा और जाति व्यवस्था खत्म हो जायेगी।
इस उपन्यास की दूसरी कहानी यूक्रेन की संस्कृति में रचे-बसे लोगों की कहानी है। इस कहानी में लेखक यूक्रेन के माध्यम से स्त्री की वैश्विक स्थिति पर विचार करने के लिए मजबूर करता है। भारत की जनसाधारण स्त्री की सोच में यूरोप की स्त्री खुशहाल और आज़ाद ख्यालात है, परंतु सब जगह ऐसा नहीं है। पूर्वी यूरोप की हर स्त्री सहारे के लिए पुरुष तलाशती दिखायी देती है। इस कहानी की उल्याना की माँ की ज़िंदगी इसलिए अधूरी है, क्योंकि उसके पिता उसकी माँ को छोड़कर चले गये। उल्याना की माँ भी इस बात को स्वीकारती है। उल्याना कहती है— “घर में एक मर्द की कमी खलती है। अब वह कमी दूर हो जायेगी। मेरी माँ भी मेरी ज़िंदगी में एक नये मर्द को देखकर ख़ुश हो जायेगी। मेरी ख़ुशी में ही माँ की ख़ुशी छुपी है। मैं अकेली हूँ, इसलिए मेरी मनोदशा देखकर माँ की आत्मा व्याकुल रहती है।”3 स्त्री का अकेला होना मानो कोई अभिशाप हो। कोई भी संस्कृति, समाज स्त्री की दशा के लिए उत्तरदायित्व होता है। पूर्वी यूरोप में संबंधों का कपड़ो की तरह बदलना स्त्री की दशा को सोचनीय बनाता है। यूक्रेन की हर दूसरी औरत की स्थिति उल्याना जैसी है जो अपने जीवन में स्थायित्व के लिए पुरुष का होना आवश्यक मानती है। स्त्री के जीवन में स्थायित्व तभी आता है, जब वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती है। आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री अपने निर्णय स्वयं ले सकती है और अपने दम-खम पर अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकती है, परंतु शायद उल्याना इस बात को नहीं समझती। वह एक नर्स का काम करती है। अपनी संतान को भी अकेली पाल-पोस सकती है, परंतु वह फिर भी निरंतर पति तलाशती रहती है। इस बिंदु पर आकर उल्याना कमज़ोर, विवश एवं दयनीय दिखायी देती है। वह एक के बाद एक तीन विवाह करती है और तीनों से उसे एक-एक संतान होती है। हर बार पति की तलाश, हर बार विवाह, हर बार संतान, यह स्थिति अत्यधिक सोचनीय है। उल्याना यह नहीं समझ पाती की हर बार विवाह से प्राप्त संतान को वह पालेगी कैसे? यह सफ़र कब और कहाँ ख़त्म होगा? यदि गहराई से देखा जाये तो इसकी जड़े हमें यूरोपीय संस्कृति में दिखायी देंगी। यूरोप के संबंधों में स्थायित्व नहीं होता। प्रेम में प्रतिबद्धता नहीं होती। लेखक पूर्वी यूरोप की संस्कृति के विषय में लिखता है— “हर समाज की संरचना अपनी कुछ बुनियादों पर खड़ी होती है। इस समाज में बच्चों को ख़ुद से रोज़गार की तलाश करनी होती है। उसके बाद ख़ुद से जीवन साथी को ढूँढ़कर ख़ुशहाल घर-परिवार बसाना होता है। इस रेस में किसी को कामयाबी तो किसी को नाकामयाबी मिलती है।”4 यूरोप का प्रेम शारीरिक सुँदरता और ज़रूरतों पर टिका होता है, इसीलिए उसमें स्थायित्व नहीं दिखायी देता। इस प्रेम को देखकर अचानक अज्ञेय की पंक्तियाँ याद आ जाती हैं— “प्रेम एक फ्यूज बल्ब है / तू नहीं तो कोई और / कोई और नहीं तो कोई और।”5 प्रेम में सम्मान, समर्पण नहीं रह गया। वह व्यापार बन गया है। इसमें सबसे अधिक फ़ायदा पुरुष का हुआ है। वह उच्छृंखल हो गया है। उपन्यास का हर पात्र संबंधों में भोजन सा अलग-अलग स्वाद लेना चाहता है, इसलिए वह अपनी पत्नी को छोड़ देता है कि उसे दूसरी स्त्री अच्छी लगने लगी। सबसे बड़ी बात हर अच्छी लगने वाली लड़की से वह शादी करता है। इस तरह का विवाह बहुत ही हास्यास्पद लगता है, क्योंकि पूर्वी यूरोप में विवाह आवश्यक नहीं है, यदि संबंधों को स्थायित्व नहीं देना तो विवाह की कोई आवश्यकता नहीं, परंतु उपन्यास में तो हर पात्र दो-दो, तीन-तीन विवाह करता दिखायी देता है। इसके पीछे पूर्वी यूरोप का संविधान महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। लेखक बताता है— “यूक्रेन के कानून के मुताबिक़ अगर माँ मानसिक रोग से ग्रसित न हो, ड्रग्स और शराब का आदी न हो तो बच्चों पर माँ का अधिकार होता है। इसके अलावा पति को परवरिश की पचास फीसदी आर्थिक मदद देनी होती है।”6 यह स्पष्ट है कि पूर्वी यूरोप का संविधान पुरुष को विवाह के बाद भी उत्तरदायित्वों से मुक्त रखता है। उसे पता है विवाह के बाद उसे बच्चों की ज़िम्मेदारी तो संभालनी नहीं है, इसलिए वह उन्मुक्त होकर एक के बाद एक विवाह करता रहता है। यदि बात करें परवरिश के पचास फीसदी देने की तो उपन्यास का कोई भी पात्र यह राशि देता दिखायी नहीं देता। न तो उल्याना के पिता ने ऐसा किया और न ही उल्याना के पतियों ने कभी परवरिश के लिए धन दिया।
इस स्त्री-पुरुषों के संबंधों में बच्चों को मानसिक, सामाजिक और आर्थिक तनावों से गुज़रना पड़ता है। उल्याना का बेटा व्लादिस्लाव पिता के प्यार के लिए तरसता दिखायी देता है। वह चाहता है कि वह पिता की गोद में बैठे, पिता उसे घुमाने ले जाये, उसके लिए खाने की स्वादिष्ट चीज़ें लाये। यह सब न होने पर व्लादिस्लाव के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है और “उसका स्वभाव परिवर्तित होने लगता है। वह उदास-उदास रहने लगता है।”7 जब उल्याना की ज़िंदगी में सेरगई आता है और वह उल्याना के बेटे को अपने बेटे की तरह प्यार देने लगता है तो व्लादिस्लाव की ज़िंदगी में एक बार फिर परिवर्तन आता है। वह सेरगई के साथ वह सब करता है जो वह अपने पिता के साथ करना चाहता था। इस आड़ में उल्याना का सेरगई से विवाह न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। एक स्त्री होने के नाते यह प्रश्न बार-बार सिर उठाता है कि यदि उल्याना ने अपनी ज़िंदगी में सेरगई को केवल इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि वह व्लादिस्लाव की ज़िंदगी में पिता की कमी पूरी करना चाहती थी तो ऐसी संवेदनशील माँ को यह समझ नहीं आया कि उसकी दूसरा पति सेरगई भी उसे पहले पति की तरह छोड़ गया तब उसके बेटे का क्या होगा? बतौर पाठक यह कहा जा सकता है कि उल्याना अपनी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक के बाद एक विवाह करती गयी। उल्याना यूक्रेन से लेकर इटली का सफ़र तय करती है, परंतु प्रारंभ अंत में भी उसे अकेला छोड़ देता है। यहाँ आकर उल्याना विवश, बेचारी लगती है। उल्याना से बेहतर स्थिति उन स्त्रियों की है जिन्होंने अपने दम-खम पर अपनी ज़िंदगी गुजारने का निश्चय किया और बख़ूबी गुज़ार भी रही हैं।
तीसरी समानाँतर कहानी महत्वपूर्ण तथ्यों एवं रोमाँच से भरी है। इसे मुख्य कथा भी कह सकते हैं। इस कहानी में लेखक जो कल्पना करता है वह हज़ार वर्ष बाद के विश्व की स्थिति की कल्पना है और उपन्यास का नाम भी 3020 ई. है। इस तीसरी कथा का आरंभ उपन्यास के भाग-2 में होता है। यह भाग खगोलीय कल्पना पर आधारित है। इसे पढ़ते हुए एक ओर मुक्तिबोध की फैंटेसी याद आती है तो दूसरी ओर जयशंकर प्रसाद की कामायनी। मेरा ध्येय इतने वरिष्ठ, प्रतिष्ठित साहित्यकारों के साथ राकेश जी तुलना करना कदापि नहीं है, अपितु नये समय की नयी संवेदना में राकेश जी के उपन्यास में ‘अंधेरे में’ और ‘कामायनी’ की झलक देखी जा सकती है। पहले बात करते हैं फैंटेसी की। मुक्तिबोध की कविता में जो फैंटेसी है वह दिवास्वपन है। अंधेरे में सामान्य स्वप्न कथा नहीं, बल्कि दु:स्वपन का कथालोक है। जिसमें हर चीज़ प्रायः विकृत, कुछ अन्यथा रुप से दृष्टिगत होती है। किंतु लेखक की मानसिक स्थिति को देखते हुए यह असंगत नहीं लगता। जो कुछ भी मुक्तिबोध ने देखा वह कपोल-कल्पना नहीं ये वो विचार थे, जिन्हें वह आसपास के वातावरण में घटित होते देख रहे थे, परंतु वह विचार उनके उपचेतन मन में कहीं गहरे छिप गये थे। नामवर सिंह इस विषय में कहते हैं— “काव्य-नायक के मन पर परिस्थितियों का इतना गहरा दवाब है कि वह अतिरिक्त भयक्राँत है। उसने अपने अमूल्य भावों और विचारों को उपचेतन के तलघर में छिपा दिया है।”8 यही कारण है कवि कहता है— “भागता मैं दम छोड़/घूम गया कई मोड़।”9 यही स्थिति उपन्यास 3020 ई. के राकेश शंकर भारती की है। वह आज जो परिस्थितियाँ देख रहा है। जलवायु परिवर्तन और प्रकृति का शोषण लेखक के उपचेतन में कहीं गहरे बैठ गया है जो दिवास्वप्न के माध्यम से खुलता है। लेखक यह बात अच्छी तरह से जान रहा है कि मनुष्य प्रकृति का दोहन इसी रफ़्तार से करता रहा तो एक-न-एक दिन प्रलय अवश्य आयेगा। प्रकृति का यह प्रकोप हम सभी को झेलना पड़ेगा। इन परिस्थितियों से निकलने के लिए लेखक मुक्तिबोध की भाँति भाग रहा है और भागते-भागते मंगल ग्रह पर शरण लेता है। लेखक चिंतित है कि प्रकृति लगातार संकेत दे रही है। अभी कुछ समय पहले उत्तराखंड में ग्लेशियर के पिघलने से बाढ़ आ गयी। चीन में धुल भरी आँधी इस प्रकार आयी कि 350 लोग ग़ायब हो गये। अमेज़न के जंगल में आग लग गयी। लेखक जंगलों में लगने वाली आकस्मिक आग के विषय में लिखता है—“ऑस्ट्रेलिया में पूरा जंगल आग की लपटों में तबाह हो चुका है। भारत के भी सारे जंगल आग की लपटों से घिरकर जल रहे हैं।”10 एक तरफ ग्लेशियरों का पिघलना दूसरी ओर जंगलों में आग लगना, हम समझ कर भी समझना नहीं चाहते। “55 लाख वर्ग कि. मी. में अमेज़न के जंगल धरती के फेफड़े कहे जाते हैं। यहाँ से दुनिया की ज़रूरत की 20 प्रतिशत आक्सीजन मिलती है। ब्राज़ील में अमेज़न के 60 प्रतिशत जंगल हैं।”11 इस जंगल को लेकर वैज्ञानिकों ने कहा है कि एक समय बाद ये जंगल पूरी तरह सूख जायेंगे। डिस्कवरी मैगजीन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार— “2020 में ब्राज़ील के अमेज़न जंगलों से पूरे दशक के सबसे ज़्यादा पेड़ काटे गये।”12 इन जंगलों को काटे जाने के पीछे भी एक राजनीतिक रणनीति काम कर रही है। कारण चाहे जो भी हो ग्लोबल वार्मिंग के कारण विश्व में आने वाला परिवर्तन विचारणीय है।
लेखक दु:स्वप्न बुनता है कि प्रकृति का अत्यंत दोहन जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिसके कारण विश्व के अनेक भाग जल मग्न हो रहे हैं। लेखक कल्पना करता है— “ग्लोबल वार्मिंग का असर पृथ्वी के हर महादेश में स्पष्ट दिखायी दे रहा है। दुनिया के कई हिस्से जलमग्न हो चुके है…..भारत के समुद्रीय तटीय इलाक़े बड़ी रफ़्तार से समुद्र के मुँह में समा रहे हैं। हिंद महासागर में मालदीव पहले ही पूरी तरह जलमग्न हो गया है…..बांग्लादेश का तीस फीसदी से ज़्यादा हिस्सा जलमग्न हो गया है। अंडमान निकोबार द्वीप समूह के ज़्यादातर हिस्से भी समुद्र में समा गये हैं।”13 चारों ओर जल से तबाही-तबाही देखकर जयशंकर प्रसाद की कामायनी की याद आ जाती है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में पौराणिक कथा को आधार बनाया है और पृथ्वी के अत्यधिक दोहन को जल प्रलय का कारण बताया है। इस जल प्रलय से मानव सभ्यता की रक्षा के लिए भगवान विष्णु मनु को बचाते है। जयशंकर प्रसाद 1936 में पौराणिक कथा के माध्यम से मानव सभ्यता को सचेत करना चाहते थे और इसीलिए मिथक को आधार बनाया। राकेश शंकर भारती उत्तर आधुनिक युग के लेखक हैं, वे यथार्थ में विश्वास करते हैं, इसलिए वह मानव सभ्यता को बचाने के लिए किसी पौराणिक कथा को आधार नहीं बनाते। वह खगोलीय ज्ञान को आधार बनाते हैं। प्रसाद मनु को हिमालय पर्वत पर अकेला बैठा दिखाते हैं फिर उसे वहाँ क्रमशः श्रद्धा और इड़ा मिलती हैं, परंतु राकेश शंकर भारती सभ्यता को बचाने के लिए मंगल ग्रह पर शरण लेते हैं। लेखक कपोल कल्पना का सहारा नहीं लेता वह तथ्य और सत्य की बात करता है। आज हम मंगल पर जीवन की खोज कर रहे हैं। अनेक ग्रहों में मंगल एक ऐसा अकेला ग्रह है जिसपर रहने के लिए विचार किया जा सकता है। राकेश जी की फैंटेसी का आधार यही मंगल ग्रह है। लेखक कल्पना और विज्ञान के माध्यम से मंगल ग्रह पर जीवन जीने की सुविधा जुटाता दिखायी देता है साथ ही अनेक सूचनाएँ भी देता है।
मंगल एक लाल रेत का ग्रह है, जहाँ जीवन जीने के लिए ऑक्सीजन और पानी की अत्यधिक आवश्यकता है। लेखक बातचीत के दौरान बताता है कि मंगल ग्रह पर पृथ्वी की तरह गुरुत्वाकर्षण नहीं है। उसकी कक्षा का व्यास पृथ्वी की कक्षा के व्यास से आधा है। यही कारण है कि वहाँ ऑक्सीजन वायु मंडल में फैल गयी है। इसका काल्पनिक समाधान लेखक ढूँढता है और कहता है— “इधर कई सालों में हमने पृथ्वी से ऑक्सीजन ले जाकर मंगल पर कई जगहों पर सुरक्षित भंडारण कर लिया है। ऑक्सीजन की यह मात्रा मंगल पर मनुष्यों के लिए अगले तीन सालों तक ख़त्म नहीं होगी, साथ ही हमने मंगल पर ऑक्सीजन बनाने वाले विशेष उपकरण स्थापित कर लिये हैं।”14 इस तरह मंगल पर रहने वाले व्यक्ति को पीठ पर ऑक्सीजन का सिलेंडर बाँधे रखना होगा। इतना ही नहीं लेखक यह भी कल्पना कर लेता है कि मंगल की सतह में कुछ गैसों के साथ ऑक्सीजन का ज़खीरा भी है, परंतु उस ऑक्सीजन को विशेष प्रकार के उपकरणों से फिल्टर करना पड़ेगा। लेखक कहता है— “जल्द ही मंगल में वायुमंडल का निर्माण हो जायेगा। हम विशेष उपकरण से इसे जल में परिवर्तित कर सकेगें।”15 जीवन जीने के लिए दूसरा सबसे महत्वपूर्ण तत्व पानी है। लेखक मंगल ग्रह पर पानी का इंतज़ाम भी कर लेता है। लेखक की कल्पना इतने में ही नहीं रुकती वह पृथ्वी की भाँति मंगल ग्रह पर अनेक खनन पदार्थों की खोज भी कर लेता है और बताता है— “मंगल और धरती दोनों ही चार परतों से बने हैं। पहली परत क्रस्ट जो लौहे वाले बसाल्टिक पत्थरों से बनी है। दूसरी मैटल जो सिलिकेट पत्थरों से बनी है। तीसरे और चौथे बाहरी और आंतरिक कोर हैं जो लौहे और निकल से बने हो सकते हैं।”16 धरती और मंगल दोनों में जीवन संभव था, परंतु ऐसा माना जाता है कि मंगल ग्रह पर ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ और सारा ग्रह तहस-नहस हो गया। व्यक्ति जीवन यापन करने पृथ्वी पर आ गया और अब पृथ्वी का दोहन करके फिर से मंगल ग्रह पर मानव सभ्यता बसाना चाहता है।
लेखक मंगल ग्रह को लेकर अनेक रोचक तथ्य जुटाता है। ऐसे ही किसी भी समय कोई भी मंगल ग्रह के लिए उड़ान नहीं भर सकता। स्पेस में जाने के लिए पहले ट्रेनिंग लेनी होती है, जिससे समय और वातावरण में आये बदलाव को व्यक्ति झेल सके। मंगल ग्रह पर पहुँचने के लिए अभी माने 2020 में सात से आठ महीने लगते हैं। लेखक बताता है हज़ार साल बाद यह समय घटकर चार महीने रह जायेगा। वह भी तब जब पृथ्वी और सूर्य एक सीधी दिशा में होंगे। सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है कि दो-तीन दिन की यात्रा हमें मानसिक और शारीरिक रूप से कितना थका देती है। ऐसे में चार महीने लगातार स्पेस की यात्रा करना कितना उबाऊ होगा। सबसे बड़ी बात जिसका ख़ुलासा लेखक करता है कि मंगल ग्रह पर जाना तो आसान है, परंतु वापिस पृथ्वी पर आना लगभग असंभव है। लेखक “मंगल ग्रह पर प्रधानमंत्री मोदी को आता हुआ भी दिखाता है और कैप्सूल रॉकेट में बैठकर जाता भी। साथ ही वह स्पष्टीकरण भी देता चलता है कि हर एक व्यक्ति मंगल ग्रह से वापिस पृथ्वी पर नहीं जा सकता। वह तो सिर्फ मोदी जी ही ऐसा कर सकते हैं, क्योंकि मोदी जी भारत के लिए वैसे ही ज़रूरी हैं जैसे मानव सभ्यता को बचाने के लिए मंगल ग्रह।”17 इस बिंदु पर आकर ऐसा लगता है लेखक मोदी जी पर व्यंग्य कर रहा है। जहाँ एक ओर मानव सभ्यता को बचाने जैसा महती काम करने के लिए करोड़ों रुपये खर्च किये जा रहे हैं वहीं भारत का प्रधानमंत्री मंगल सर्वेक्षण के लिए अरबों रुपये ख़र्च कर रहा है। लेखक ने सेटालाइट कॉलिंग की भी व्यवस्था बतायी है। सबसे अहम बात उत्साहवर्धन के लिए पूरे विश्व में से केवल भारत का प्रधानमंत्री ही मंगल ग्रह पर आता है।
विश्व की राजनीति जो पृथ्वी पर ज़ोर-शोर से चलती है, वह मंगल ग्रह पर भी चलती है। मंगल ग्रह पर केवल यूक्रेन, लंदन, भारत देशों से ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व से वैज्ञानिक, डॉक्टर और जनसाधारण आये हैं। मंगल की सतह पर जब खनन प्राप्त होता है तो लेखक उसके बंटवारे की भी कल्पना कर लेता है। वह बंटवारे का आधार स्पष्ट करता हुआ कहता है— “यह खनन साइट भारत के हिस्से आया है। पृथ्वी के जिन देशों ने जितने पैसे ख़र्च किये हैं, उन्हीं के हिसाब से इन देशों के बीच प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा हुआ है।”18 मतलब पर्यावरण में इतना सब कुछ घटित हो गया, परंतु मानव की मानसिक स्थिति दोहन वाली रही। पहले वह पृथ्वी का दोहन करता रहा, फिर वह जब मंगल पर बसा और बहुत-सी ऐसी रासायनिक तत्व, ऊर्जा मिली जो पृथ्वी पर नहीं थी तो वह मंगल ग्रह पर उसका दोहन करने लगा।
राकेश शंकर भारती मंगल ग्रह पर मानव सभ्यता को बसाते हैं एवं विकास पाते दिखाते हैं। जिस तरह हम पृथ्वी के आदी हो गये हैं। उसी तरह मंगल ग्रह पर रहने वाले मानव मंगल ग्रह के आदी हो गये हैं। वहाँ खेतीबारी होने लगी, फसलें उगायी जाने लगी। समय बीतने के साथ विवाह भी होने लगे। इन सबके साथ पृथ्वी की जल प्रलय भी अब शाँत हो गया। ऐसे समय पर मंगल ग्रह पर आये वे व्यक्ति जो अपना घर परिवार पृथ्वी पर छोड़ आये हैं उनमें कहीं मानसिक अशाँति है। परिवार से बिछड़ने का दुख साफ़ दिखायी देता है। लेखक अपने पुत्र दवित को तो अपने साथ मंगल ग्रह ले आया था, परंतु अपनी बेटी और अपनी पत्नी को धरती पर ही छोड़ आया था। जब पृथ्वी पर लेखक की बेटी का विवाह हो रहा है तो ऐसे समय वह अपनी बेटी से केवल सेटेलाइट पर ही बात कर पाता है। कुल मिलाकर लेखक चेतावनी देता है कि यदि प्रकृति का दोहन नहीं रुका तो हज़ार साल बाद हमारी स्थिति बदलने की शायद कोई गुंजाइश नहीं होगी।
सबसे महत्वपूर्ण बिंदु लेखक अपना उपन्यास नरेन्द्र मोदी जी को समर्पित करता है। उपन्यास में वर्तमान प्रधानमंत्री एक पात्र के रुप में आते हैं, परंतु यदि वह नहीं भी आते तो उपन्यास की गति में कोई बाधा नहीं होती। लेखक के साथ हुई बातचीत में वह बताते है कि मोदी जी को “उपन्यास समर्पित करने पर मुझे अनेक समस्याओं को झेलना पड़ा।”19 पूरे उपन्यास में ऐसा कुछ भी नहीं दिखायी देता जहाँ लेखक प्रधानमंत्री की चाटुकारिता करता हो। तथ्य और सत्य रखना कोई अपराध नहीं, न ही इस आधार पर लेखक को किसी विशेष खेमे से जोड़ा जाना चाहिए। लेखक उन घटनाओं का वर्णन करता है जिनका कोई अस्तित्व है। हाल ही में हुई सर्जिकल स्ट्राइक पर आम भारतीय की तरह गर्व करता हुआ लेखक कहता है—“सर्जिकल स्ट्राइक करके पाकिस्तान को उसकी औक़ात दिखा दी है। इससे पूरे विश्व में सिद्ध हो गया है कि अब हमारी सेना मुश्किल से मुश्किल सैन्य कार्यवाही करने में सक्षम है।”20 जब भारतीय के शरीर में देश-प्रेम संचारित होता है तो उसके लिए पहले देश होता है, बाद में समाज और परिवार। राकेश शंकर भारती भारतीय मूल होने के कारण भारत के प्रति अपनी जवाबदेही निभाते हैं और जोश से कहते हैं कि अब भारत 1971 वाला भारत नहीं रहा। अब वह चीन हो या पाकिस्तान सब के समक्ष डट कर मुक़ाबला कर सकता है।
इस प्रकार समग्र रुप से कहा जा सकता है कि यह उपन्यास कथ्य और शैली की दृष्टि से एक प्रयोगात्मक उपन्यास है। इस तरह खगोलीय प्रयोग की कहानी लिखना और तीन कथाओं को समानाँतर चलाना अपने आप में चुनौतीपूर्ण है, परंतु राकेश शंकर भारती इसपर खरे उतरते है। कहीं-कहीं भाषागत त्रुटियाँ हैं, जिनपर लेखक ध्यान देंगे तो वह भारतीय हिंदी साहित्य के एक प्रतिष्ठित लेखक के रुप में अवश्य जाने जायेंगे।