हिंदी ग़ज़लों में नए कहन के माध्यम से जीवन को गंभीरता से समझाने वाला ग़ज़ल संग्रह: ज़िन्दगी की शाख़ पर
वक़्त की रफ़्तार हमेशा यकसाँ रही है। वक़्त ने अपने मन के पाट हर इंसान के लिए जितने बन्द रखे हैं, उतने ही खुले भी रखे हैं। ख़ूबसूरत बात यह है कि इन पाटों के भीतर की दुनिया देखने के लिए वक़्त ने जो शर्तें रखी हैं, वो हम इंसानों के दायरे से होकर ही गुज़रती हैं। अब उन शर्तों को हम पूरा कर पाते हैं या नहीं, ये हम पर निर्भर करता है। जो पूरा कर लेते हैं, उन्हें वक़्त का असली मोल पता चल जाता है और जो नहीं कर पाते, उनके लिए तो वक़्त को अपशब्दों की मापनी में भर लेना कहाँ कठिन है। वक़्त का मन अपने साँचे में उतार लेने के लिए कर्म ही एकमात्र विकल्प है। अगर इंसान कर्म करेगा तो वक़्त से उसका फल भी पाएगा। सकारात्मक और नेक कर्मों का फल पुण्यरूप में मिलता है और नकारात्मक कर्म पाप सिद्धि का ज़रिया बनते हैं।
किसी रोते हुए को दंतुरित मुस्कान दे देना, किसी मददग़ार की मदद कर देना, किसी को अपनी ज़िंदगी के अच्छे क्षणों को समर्पित कर देना, किसी की पीर को अपना बनाकर उसे ख़त्म कर देने का प्रयास करना, यह सब वक़्त की पुस्तक में सफेद अक्षरों में लिखा जाता रहा है, लिखा जाता रहेगा। हक़ीक़त के मौज़ू से कहूँ तो शेर-ओ-शायरी का आनंद तब ही है जब पढ़ने के बाद भी उसे एक-दो नहीं बल्कि सौ बार जी लिया जाए। क्योंकि जीने का नाम ही ज़िन्दगी है। शायरी को लिख देने भर से उसकी सार्थकता का प्रमाण तब तक नहीं मिल जाता जब तक इंसान ख़ुद को उससे न जोड़ पाए। ज़िन्दगी में कुछ हादसे ख़ूबसूरत होते हैं कुछ बुरे। इन्हीं हादसों के अहसासात की बयानी शायरी है, साहित्य है।
बीते कई सालों से शायरी की तर्जुमानी कई आला शायरों ने की है। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते शायरी का सामाजिक हो जाना अचंभित नहीं करता बल्कि यह बताता है कि इंसानी नस्ल एक ऐसे दौर से गुज़र रही है जहाँ इंक़लाब की सबसे ज़्यादा ज़रूरत आन पड़ी है। चीख़-पुकारों वाले परिवेश में रहते हुए, सियासत के नंगे और खोखले इरादों के साथ उनकी बुलंदी के स्वरों को जीते हुए शायरों ने जो अनुभव किया, उसकी छटा शायरी में भी आई है। शायरी का यह इंक़लाब महज़ इंतिख़ाब नहीं है, बल्कि वक़्त की दरकार है। मजाज़ ने कभी कहा भी था-
कोहसारों की तरफ़ से सुर्ख़ आँधी आएगी,
जा-बजा आबादियों में आग सी लग जाएगी।
इस शेर को पढ़ते के बाद मैं कई दिनों तक चश्म-ए-पुरनम में रहा। मैंने जिधर नज़र दौड़ाई, हर उस तरफ उदासी और मातम के काले घेरे के अलावा केवल एक चीज़ मिली वह था इंक़लाब। इंक़लाब, जो हर सीने में जल रहा है। इंक़लाब जो कुछ कहने के लिए मचल रहा है। ऐसा नहीं है कि शायरी में मोहब्बत नहीं कही जा रही। मोहब्बत के अल्फ़ाज़ अब नए ज़माने में सफ़र कर रहे हैं, और उन अल्फ़ाज़ों को शक़्ल भी मिल रही है। लेकिन इस दौर और इस पीढ़ी को मोहब्बत के साथ इंक़लाब की भी ज़रूरत है। वरना वह दिन भी दूर नहीं जब आने वाली पीढ़ियों का वज़ूद नेस्तनाबूत हो जाएगा। शायर जो कहते हैं, वह ज़िन्दगी की स्लेट पर किसी बच्चे के हाथों से बनाई गई उस ओलम की तरह है जो स्लेट से भले ही मिट जाए लेकिन ज़ेहन से नहीं मिटती। हँसमुख आर्यावर्ती भी इन्हीं शायरों के नाम में शुमार होते हैं। नौजवान शायरों में अपनी बात को जिस ढँग से रखने का हुनर इन्हें आता है, उसका मैं क़ायल हूँ। शायर अमन चाँदपुरी का एक शेर हँसमुख साहब के कहन से शो’राओं को रू-ब-रू कराने का माद्दा रखता है-
हमने सुख़न में कोई इज़ाफ़ा नहीं किया,
गेसू ग़ज़ल के सिर्फ़ सँवारे हैं उम्र भर।
ग़ज़ल के गेसू सँवारना कोई आसान काम नहीं है। ग़ज़ल के केशों में गजरा लगाने का हुनर हक़ीक़ी परवरिश और रहन-सहन से ही आ सकता है। नई रदीफ़ और क़ाफ़ियों को बह्र के साँचे में उतार लेना हँसमुख भाई की ग़ज़लों का लुब्ब-ए-लुबाब है। इनकी ग़ज़लों में एक नई रदीफ़ के मतले और शेरों ने मन में जबसे घर किया, तब से इसी का होकर रह गए:-
‘ख़ाक ही मुझको करेगा ये तुराबों का तिलिस्म,
या नया नक्शा नवाज़ेगा नक़ाबों का तिलिस्म।’
इंक़लाबी बिगुल बजाने वाले इस शेर के तेवर शायरी में खुद्दारी के नए मज़मून को समझने के लिए काफ़ी हैं:-
‘कौन सी ये सल्तनत है, कौन सा तू बादशाह,
यार मिट्टी में मिलेगा, ये नवाबों का तिलिस्म।’
इस ज़मीन का अगला शेर इस क़ायनात के हर फ़लसफ़े की बयानी है। धरती के उसी हिस्से में उजाला होता है जहाँ तक सूरज की रोशनी पहुँचती है लेकिन दूसरे अँधेरे से सने हिस्से की बयानी शायरी के ख़ाते में आती है। ये क़ायनात एक मृग-मरीचिका जैसी है, जहाँ सब केवल अनुमान के हिसाब पर चल रहा है। इस अनुमान में सटीक बिंदु पकड़ना और उसका विवेचन करता हुआ यह शेर सिकुड़ी हुई पुतलियों को फैलाने में सक्षम है:-
‘तू ज़मीं पर एक सूरज देख कर हैरान है,
हम फ़लक पर देखते हैं आफ़ताबों का तिलिस्म।’
बह्र में ‘तिलिस्म’ जैसी रदीफ़ को लेकर ख़याल बाँधना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन हँसमुख भाई का क़लम आसानी से यह काम कर गया।
हिंदी की एक कहावत है कि ‘पूत के पाँव पालने में दिख जाते हैं।’ ग़ज़लों में शेरियत ऊपरवाले की देन है जो क़लम के ज़रिए पन्नों तक अपना सफर तय करती है। आम आदमी को लफ़्ज़ों के मफ़हूम तक पहुँचाने में शायर अपना सौ फ़ीसदी देता है। अपना बचपन हम सभी ने किसी न किसी शक़्ल में जिया होगा। किसी ने बचपन में अभाव झेले होंगे तो किसी ने संपन्नता के माथे को चूमा होगा। बालपन में यह बात नज़रों में आती लेकिन जब बच्चा बचपन की दहलीज़ को लाँघकर जवानी की दहलीज़ में दाख़िल होता है, तब उसे बचपन की असली शै के बारे में पता चलता है। जवाणी और बुढ़ापे में बचपन की खनक को जीने का एकमात्र साधन याद होती है। इस ग़ज़ल संग्रह की शुरुआत बालपन के शेरों से करने के लिए शायर को ख़ासा शुक्रिया अर्ज़ करता हूँ। क्योंकि बचपन ज़िन्दगी की पहली सीढ़ी होती है, बिना उसके जवानी और बुढ़ापे की परिकल्पना भी नहीं की जा सकती। ग़ज़ल संग्रह की पहली ग़ज़ल से कुछेक शेर यूँ हैं:
एक अनगढ़ सी कहानी से बहलता बालपन,
चंद सिक्कों की खनक से अब खनकता बालपन।
बालपन में काम करता है बुज़ुर्गों की तरह,
और अपने काम को है वह समझता बालपन।
बेचता कुछ स्वप्न अपने और अपनी नींद भी,
वक़्त के साँचे में ढलता हाय! कैसे बालपन।
हिंदी ग़ज़ल के नए आयाम निर्धारित करने में हँसमुख साहब की भी उतनी भूमिका है जितनी हिंदी ग़ज़ल के बाक़ी शायरों की। अँधेरे की आँखों में उजाला हर वक़्त खलता है। खले भी क्यों न, अँधेरे के मंसूबों पर पानी फेरने का काम उजाले के हिस्से जो आता है। उजाला किसी दिल में बहत्तर बार हलचल करने वाली धड़कन की मानिंद है, उजाला उम्मीद है या कहूँ तो उजाला जीवन के ब्लैक होल में किसी बिग बैंग मशीन के जैसा है। जहाँ जीना आसान हो जाता है। एक ग़ज़ल में हिंदी शब्दों के अनूठे प्रयोग को देखकर मैं हतप्रभ हुआ और ख़ुश भी। जिस ग़ज़ल का कहन अव्वल है वहाँ किसी भी भाषा के शब्द आ जाएँ, वे ग़ज़ल के शिल्प सौंदर्य में रुकावट नहीं बनते। ग़ज़ल के एक मतले और एक शेर की बुनावट देखिए:
दीप जो सौहार्द के प्रति जल रहा है साथियों,
वह तिमिर के चक्षुओं में खल रहा है साथियों।
लोग कहते थे उसे पाषाण है, पाषाण है,
मोम जैसा वह मनुज भी गल रहा है साथियों।
हमारे देश की सभ्यता के नाम किया गया एक शेर बहुत पसंद आया जिसे पढ़ने के बाद मेरे मुँह से केवल एक शब्द ज़िन्दाबाद निकला। वह शेर यूँ है:
है क्षमा, प्रतिशोध अपना हम नहीं लेते कभी,
यह हमारी सभ्यता का बल रहा है साथियों।
मैं जिस इंक़लाबी तेवर की बात कर रहा था, वह इस संग्रह में शानदार तरीके से देखने को मिला। शायरी को भावार्थ समझाने की आवश्यकता न पड़े, तभी वह मुक़म्मल हो पाती है। शायरी का सीधा दिल में उतर जाना शायर के क़लम की धार को पैनापन देता है। एक मतला और एक शेर देखें:
कुछ अभागे पल हमारी बस्तियों में आ गए,
इसलिए ही हम उछलकर सुर्ख़ियों में आ गए।
जिन सवालों को ज़माना चीख़कर है पूछता,
उनके उत्तर बस तुम्हारी चुप्पियों में आ गए।
नस्ल-ए-नौ के कंधे पर भविष्य टिका हुआ है। आज के भ्रामक और अलगाववादी माहौल से युवाओं को ही नहीं बल्कि हर उम्र, हर तबके के लोगों को आगाह करता हुआ मक्ते का यह शेर देखिए:-
आपको रहना पड़ेगा यार ‘हँसमुख’ सावधान,
ये बमों के फूल अपनी वादियों में आ गए।
हर लेखक और शायर का यह नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह नकारात्मक परिवेश को मद्देनज़र रखते हुए भविष्य के गतिरोधों और हादसों से आवाम को आगाह करे। इस मापदंड पर हँसमुख सही साबित होते हैं। इसके अलावा हँसमुख साहब स्वयं से बात करने में भी माहिर हैं। हम अक्सर सुनते हैं कि शायर ख़ुद से बातें करते हैं। इस बात पर मेरा उत्तर होगा- हाँ! शायर ख़ुद में बसे उन अनगिन जीवंत क़िरदारों से बात करते हैं जो इस दुनिया का किसी न किसी रूप में घटक हैं। इस बात का उदाहरण भी इन दो शेरों में देख ही लीजिए:-
रंग हज़ारों अपना सावन साथ लिए,
हम चलते हैं अपना गुलशन साथ लिए।
हम सबकी तस्वीर बनाने वाले लोग,
क्यों चलते हम टूटा दर्पण साथ लिए?
अब देखिए न! एक शेर में कितनी सादगी से एक गंभीर प्रश्न पूछ लिया गया है। अगर उत्तर ढूँढा जाए तो दिया छोड़िए, सूरज लेकर ढूँढने भी चले जाने पर इसका उत्तर ज़्यादातर लोगों के पास नहीं मिलेगा।
हर शायर की ज़िन्दगी में एक दौर ऐसा भी आता है जब वह नकारात्मकता की रेल में भी सफर करता है। यही शायर के आत्ममंथन का समय होता है और ऐसे में जो शायरी होती है, वह बेमिसाल तो होती ही है, साथ ही वह प्रश्नों में उत्तर देने का और उत्तर में प्रश्न पूछने का दम भी रखती है। नकारात्मकता से सकारात्मकता ढूँढना कहन को एक नई बुलंदी तक लेकर जाता है जो आगे चलकर शायर की ग़ज़लों का वैशिष्ट्य बखान करता है। दो शेर देखिए:
दश्त में ऐसे भटककर हाथ तो ख़ाली रहे,
क्या करेंगे करके ख़ुद को हम क़िताबों के सुपुर्द।
इक ख़सारा इक मुनाफ़ा चल रहा है ज़ीस्त में,
ये मुनीमी कर रही है बस हिसाबों के सुपुर्द।
इंसानी ज़ेहन में एक-दूसरे की परवाह का ख़याल चौबीसों घंटे रहता है। फिर चाहे उसके सामने जानवर हो, पक्षी हो, पेड़-पौधे हों, या फिर ख़ुद इंसान ही क्यों न हो, वह उनकी परवाह करना और ख़याल रखना नहीं भूलता। वैसे भी, आज के दौर में परवाह करना तब और बनता है जब एक जान दूसरी के पीछे घात लगाकर बैठी हो। इस शेर में उसी परवाह की मासूमियत झलकती है:-
इन परिंदों को कभी भी आपको दूँगा नहीं,
आप करियेगा इन्हें केवल उक़ाबों के सुपुर्द।
नई पीढ़ी पर पश्चिमीकरण के बढ़ते प्रभाव और अपने से बड़ों के प्रति सम्मान, श्रद्धा और प्रेम के घटते क्रम को मद्देनज़र रखते हुए शायर ने जो तब्सिरा किया है, ज़रा उस पर भी ग़ौर करें:
ये नई पीढ़ी नशे की इस क़दर शौक़ीन है,
हाथ में बीयर कहीं है, तो कहीं कोकीन है।
देखिए हर बार वो साबित हुआ ज़्यादा ग़लत,
आप कैसे कह रहे हैं व्यक्ति वह शालीन है?
प्रत्येक ग़ज़ल में ऐसे शेर मिलेंगे जो हरेक तबके के लोगों के दिमाग़ की सुप्त नसों में विद्युत धारा प्रवाहित करने का माद्दा रखते हैं। इन शेरों के सृजन के लिए जो वैचारिक स्थिरता चाहिए, वह दिखती है। उन ग़ज़लों से कुछेक फुटकल शेर कुछ यूँ हैं:
दोनों इश्क़ में आधा-आधा जीते हैं,
इनके हिस्से आधी-आधी पगडंडी।
कितनी कोमल ख़ाहिश बिखरी टूटे मनहर स्वप्न,
जब नन्हे कंधों पर आया माँ- दादी का बोझ।
एक गवाही झूठी देकर पाला है अपराध,
जीवन भर का पछतावा है आँखों देखा दृश्य।
सियासतदार हैं इनका भरोसा यार मत करना,
ये दरिया बेच डालेंगे रवानी बेच डालेंगे।
ग़ज़लों को पढ़ते हुए शायर हँसमुख साहब के नायाब प्रयोगों को देखकर मन को जितनी हैरानी हुई, उससे बीस गुना ज़्यादा ख़ुशी हुई। कई बड़े शायरों को शिक़ायत रहती है कि नए लड़के-लड़कियाँ कहन के अच्छे और पक्के नहीं हैं। पर ज़िन्दगी की शाख़ पर मैं इनकी इस तनक़ीद को सिरे से ख़ारिज़ करता हूँ। अमाँ मियाँ! अभी असली शायरों से तो ये मुख़ातिब ही नहीं हुए। ख़ैर, एक और हिंदी शब्दावली से रचा-बसा प्रयोग देखें:-
यादों की प्रतिमाएँ टूटी हैं लश्कर के हाथों से,
तोड़ दिया है दिल का शीशा फिर पत्थर के हाथों से।
उसको भूत-भवानी के चक्कर में मत उलझाओ तुम,
मर जाएगी बूढ़ी काकी आडंबर के हाथों से।
हँसमुख भाई की ग़ज़लें सामाजिकता का जीवंत उदाहरण हैं। शुरू से लेकर आख़िरी ग़ज़ल तक सारी ग़ज़लों में जीवन झाँकता हुआ तो मिलेगा ही, साथ ही उस जीवन का आँखो में आँखें डालकर सवाल पूछना भी अनोखी शैली को प्रस्तुत करता है। हिंदी ग़ज़ल के परिक्षेत्र में आये दिन नए प्रयोग होते हैं, जिससे हिंदी ग़ज़ल का भवन सजता तो है ही, साथ ही मज़बूत भी हो जाता है। हिंदी ग़ज़लों में मनोज अहसास जी, के.पी. अनमोल साहब के अलावा भी कई ग़ज़लकार हैं, जो अपने फ़न से हिंदी ग़ज़ल को समृद्ध कर रहे हैं। अब से हँसमुख साहब का नाम भी नौजवान हिंदी ग़ज़लकारों में शुमार हो गया है। इस संग्रह के शीर्षक के साथ शायर ने सौ फ़ीसदी न्याय किया है। ज़िन्दगी के पेड़ ही है जिसकी शाखाओं पर जीवन के विभिन्न घटकों और रंगों को दर्शाया गया है। पुस्तक में कई जगह लगा कि बचपन पर शेरों की पुनरावृत्ति हो रही है लेकिन ग़ौर करने योग्य ख़ास बात यह रही कि हर शेर की ज़मीन अलग थी, उसकी बुनावट का पहलू अलग था, जो इस संग्रह की ख़ासियत बन कर उभरा है। नई रदीफ़ का प्रयोग विरले ही देखने को मिलता है। संग्रह में जदीदी कहन ने मुझे सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। हाँ लेकिन, एक बात ज़रूर कहूँगा कि दो-तीन ग़ज़लें ऐसी लगीं जो पुस्तक के पेज पूरे करने के लिए शायद लगा दी गयी हैं। उन्हें किसी अन्य संग्रह में होना चाहिए था। अगले संस्करण में चाहें तो शायर इन्हें हटा भी सकते हैं। ख़ैर, इन ग़ज़लों का भी संग्रह को मुक़म्मल करने में उतना ही योगदान है, जितना कि अन्य का। पहले संग्रह में प्रारंभिक रचनाओं का होना यह दर्शाता है कि लेखन के शुरुआती दौर में भी रचनाकार का दृष्टिकोंण कैसा था? हँसमुख भाई की सामाजिक सोच-समझ में जो विस्तार है, वह उनकी ग़ज़लों में भी दिखा है। कुल मिलाकर यदि पाठकगण किसी नए, ऊर्जावान, प्रतिभासम्पन्न और समय सापेक्षिक व्यक्ति को पढ़ना चाहते हैं, तो हँसमुख साहब को पढ़ना अच्छे विकल्पों में रहेगा। हिंदी ग़ज़ल के इस नए दैदीप्यमान सितारे को कहन के लिए अपार और अनहद शुभकामनाएँ। शाद-ओ-आबाद रहें हँसमुख भाई।
पुस्तक: ज़िन्दगी की शाख़ पर (ग़ज़ल संग्रह)
शायर: हँसमुख आर्यावर्ती
पेज: ९६
संस्करण: पहला संस्करण, वर्ष २०२०
प्रकाशक: साहित्य कलश प्रकाशन, पटियाला
मूल्य: ₹२००( पेपरबैक संस्करण)
समीक्षक: ‘खेरवार’
उपलब्धता: अमेज़न, प्रकाशकीय उपलब्धता