आधुनिक एकलव्य: वीरांगना कालीबाई
(बलिदान दिवस 19 जून 1947)
वीरांगनाओं के इतिहास में केवल क्षत्राणियों के नाम ही पाये जाते हों ऐसा नहीं है। राजस्थान की नारियों की नस-नस में त्याग, बलिदान व वीरता भरी हुई है। यहाँ तक कि आदिवासियों ने भी आवश्यकता पड़ने पर जी-जान से देश की प्रतिष्ठा में चार-चांद लगाये हैं। राजस्थान की आदिवासी जन-जातियाँ सदैव से देशभक्त व स्वाभिमानी रहीं हैं। इनकी महिलाओं ने भी समय-समय पर अपना रक्त बहाया है। इन्हीं नामों में से एक नाम है वीर बाला कालीबाई का।
उस मासूम ने भले ही अंग्रेजों का कुछ नहीं बिगाड़ा था लेकिन भारत के चाटुकार इतिहासकारों और नकली कलमकारों का क्या बिगड़ा था? क्यों नहीं लिखा गया उसका कहीं भी नाम और क्यों किया उसको गुमनाम? अपनी जान की बाजी लगाकर उस 12 साल की मासूम ने अपने हाथ मैं रखी हंसिया से पाठशाला के अध्यापक सेंगाभाई की जान बचाकर अंग्रेजों की एक टुकड़ी भगाई थी। देश का नमक खाने वाले झूठे कलमकारों ने क्यों किया राष्ट्र के साथ यह अन्याय…..? देश के लिए अपने प्राण और बलिदान देने वालों का पता ही नहीं है? अगर 12 साल की कालीबाई का इतिहास हमें पढ़ाया गया होता तो क्या आज हमारी मासूम बच्चियों को उनसे देश हित की प्रेरणा नहीं मिलती? महाभारत में द्रोणाचार्य ने शिक्षा न देकर भी एकलव्य से गुरुदक्षिणा के नाम पर अंगूठे के साथ उसकी सम्पूर्ण प्रतिभा से वंचित कर दिया था।
यह परतंत्र भारत के उस काल की घटना है, जब राजस्थान में छोटी बड़ी अनेक रियासतें थी। इन रियासतों में एक रियासत डूंगरपुर थी। जिसके शासक महारावल लक्ष्मण सिंह थे। इस समय भारत पर पूर्ण रूप से अंग्रेजों का शासन था। वनवासी अंचल को गुलामी का अँधेरा अभी भी पूरी तरह ढके हुए था। छोटी-छोटी बातों पर अंग्रेजी राज्य के वफादार सेवक स्थानीय राजा अत्याचार करते थे। प्रजा में जागृति न फैले, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था। महारावल शिक्षा के खिलाफ थे। वे भयभीत थे कि अगर वनवासी पढ़-लिख गये तो वे नागरिक अधिकारों की बात करेंगे और उनकी राज्य सत्ता कमजोर होगी।
वीर बाला कालीबाई डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गांव की एक भील बालिका थी। उनके पिता का नाम सोमभाई भील था तथा माँ का नाम नवली बाई था, जो किसान थे। जिनका खेत रास्तापाल गांव के समीप ही था। वे खेती से ही अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। कालीबाई के पिता सोमाभाई गोविंदगुरू के आदर्शां से बहुत प्रभावित थे। आदिवासियों मे फैली हुई सामाजिक कुरीतियाँ को मिटाने एवं उनमें जागृति लाने हेतु गोविन्द गुरू दवारा बनायी हुई ‘सम्प सभा’ से प्रभावित होकर उन्होनें कालीबाई को पाठशाला भेजना शुरू किया था। कालीबाई भी पाठशाला से लौटकर अपने माता-पिता के घर और खेती के कार्यों में हाथ बंटाती थी।
इसी बीच ‘सम्प सभा’ सेवा संघ के कार्यकर्ता शिक्षा का प्रचार और प्रसार करने लगे। वे गांव-गांव जाते और बच्चों को पढाई के लिए प्रेरित करते। उन्हें शिक्षा का महत्त्व बताते। सेवा संघ ने पाठशालाएं खुलवा दी। डूंगरपुर मे भी एक पाठशाला का निर्माण कराया गया। उसका उद्घाटन हुआ। यह पाठशाला बच्चों और बड़ों दोनों के लिए थी। महारावल शिक्षा के प्रचार प्रसार से भयभीत हो गए। उन्होंने सोचा कि- किसान और जनता शिक्षित हो जाएगी तो फिर वह अपने अधिकार मांगेंगे। जनता हमारे राजकाज मे भी दखल देने लगेगी। स्थिति विकट हो जाएगी। वे नहीं चाहते थे कि आदिवासियों के बच्चों को किसी भी प्रकार की शिक्षा मिलें। उन्हें डर था कि आदिवासी बच्चे शिक्षा प्राप्त करके अपने हक अधिकारों की बात करेंगे और उनके गुलाम/बेगारी बनकर नहीं रहेगे।
वे उन्हें उनके पुरखों के गौरवशाली इतिहास से भी अनभिज्ञ रखना चाहते थे जबकि सच्चाई यह है कि इूंगरपुर को 13 वीं शताब्दी मेँ वीर योद्धा इंगरीया भील के दवारा बसाया गया था। दक्षिणी राजस्थान में (उदयपुर, बांसवाडा, डूंगरपुर, भीलवाडा, प्रतापगढ आदि) सिंधु घाटी सभ्यता के वंशज भील मीणाओं का साम्राज्य स्थापित था जिसको राजपूतों ने छल-कपट और कूटनीति से हथियाया था।
महारावल ने पाठशाला बंद करने के आदेश दे दिए। इसके लिए आवश्यक कानून भी बनाए गए। मजिस्ट्रेट ने पाठशालाएं बंद करने का अभियान शुरू कर दिया। अभियान को सफल बनाने के लिए पुलिस और सेना की भी मदद ली गई। पाठशाला बंद अभियान के कार्यकर्ता रास्ता पाल नामक गांव पहुंचे। यह घटना 19 जून 1947 की थी। रास्ता पाल गांव में एक पाठशाला थी। पाठशाला के मालिक नानाभाई खाट थे। पाठशाला के अध्यापक सेंगाभाई थे। उस समय दोनों ही वहां मौजूद थे। पाठशाला में विद्यार्थी अभी आए नहीं थे। मजिस्ट्रेट ने नानाभाई को स्कूल में ताला लगाने के लिए कहा। नानाभाई ने ताला लगाने से मना कर दिया। मजिस्ट्रेट के साथ पुलिस भी थी। मजिस्ट्रेट ने पुलिस को उनके साथ सख्ती बरतने का आदेश दिया। उसने पुलिस से जबरदस्ती स्कूल पर ताला लगाने को भी कहा।
नानाभाई और सेंगाभाई ने उनका पुरजोर विरोध किया। बदले मे पुलिस ने उन दोनों पर लाठियां बरसाई। सैनिकों ने लात, घूंसे और थप्पड़ से उनकी खूब पिटाई की। लेकिन दोनों ही कर्तव्य परायण थे, इसलिए अपनी बात पर अडे़ रहे। पुलिस ने जबरन स्कूल में ताला लगा दिया और पुलिस उन्हें मारते मारते अपने साथ ले जाने लगी। नानाभाई पर बंदूक की बट बरसाई जा रही थी। वह दर्द से छटपटा रहे थे। परंतु पुलिस उन्हें बड़ी बेरहमी से पीटती रही। रास्ते में असहनीय पीड़ा से नानाभाई ने अपने प्राण त्याग दिए।
सेंगाभाई भी बेहोश हो गए। परंतु जालिम इतने पर भी न रूके। पुलिस ने रस्सी का एक सिरा उनकी कमर मे बांध दिया और दूसरा सिरा अपने ट्रक मे बांध लिया। देखते ही देखते वहां काफी भीड़ इकट्ठा हो गई। लेकिन किसी की हिम्मत न हुई जो पुलिस के खिलाफ आवाज उठा सके।
पुलिस की गाड़ी सेंगाभाई को घसीटते हुए चली। तभी एक बारह वर्षीय बालिका ने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया। उस बालिका का नाम कालीबाई था। कालीबाई अपने खेतों में घास काट रही थी। उसके हाथ मे दरांती थी। उसने सेंगाभाई की दुर्दशा देखी। सेंगाभाई उसके गुरु थे। उसे पढ़ाते थे। अपने गुरु की दुर्दशा देख वह पुलिस की गाड़ी के पीछे दौड़ी। उसने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू किया; ‘‘मेरे मास्टर जी को छोड़ दो’’ इन्हें क्यों घसीट रहे हो, कहाँ ले जा रहे हो इन्हें?’’।
दौड़ते दौड़ते वह गाडी के पास पहुंच गई। उसने आगे बढकर दरांती से रस्सी काटनी चाही। इतने में पुलिस ने गाड़ी रोक दी। पुलिस ने कालीबाई को डराया धमकाया और वापस लौट जाने को कहा। कालीबाई ने पुलिस की एक न सुनी। वह मास्टर जी को बचाना चाहती थी। उसने निडर होकर रस्सी को काट दिया। सैनिक कालीबाई पर बंदूक ताने हुए थे। परंतु कालीबाई को अपनी जान की परवाह नहीं थी।
छोटी सी बालिका के हौसले को कई महिलाओं ने देखा। वे सब भी उसके पास आ गई। सेंगाभाई बेहोश थे। बालिका ने एक महिला से पानी लाने को कहा। बालिका की हठ से पुलिस रोष में आ गई। सैनिकों ने उस पर गोलियां चला दी। कालीबाई गोलियां खाकर गिर पड़ी। उसके साथ अन्य महिलाएं भी घायल हो गई। परंतु कालीबाई ने सेंगाभाई को बचा लिया। उसने अपने गुरू को बचाकर गुरू-शिष्य परम्परा में एक नया अध्याय जोड़ा।
कालीबाई के साहस से रास्ता पाल वासियों की आंखें खुल गई। उन्होंने मारू ढोल बजा दिया। भीलवासी पुलिस पर आक्रमण करने को तैयार हो गए। पुलिस को मालूम था कि मारू ढोल की आवाज मारने मरने का संकेत है। इसलिए वे सब जल्दी से अपनी गाड़ी में सवार हुए और वहां से भाग गए। मारू ढोल की आवाज पूरे भील गांव मे फैल गई। आदिवासी हथियारों से लैस वहां पहुंच गए। पुलिस और सैनिक तब तक वहां से भाग चुके थे। नानाभाई का शव और कालीबाई सहित सभी घायलों को चारपाई पर रखकर डूंगरपुर लाया गया। वहाँ उन्हें इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किया गया।
कालीबाई वहां चालीस घंटे तक बेहोश रही। मूक बना कालचक्र सब कुछ देखता रहा। डॉक्टरों के वश में कुछ नहीं था। कालीबाई ने 12 वर्ष की उम्र में इतनी बड़ी कुर्बानी दे दी। कालीबाई अपने शरीर को छोड़ चली गई। उनकी आत्मा परमात्मा में समा गई।
कालीबाई को आधुनिक युग का एकलव्य कहा जाने लगा। उसने अपने गुरू की जान बचाई और शाही सामंतों की बलिवेदी पर चढ़ गई। वह बलिदान के इतिहास में अपना नाम दर्ज कर गई। उसके बलिदान से आदिवासियों में नई चेतना जागी।
डूंगरपुर राज्य में एक पार्क बनवाया गया। वह पार्क प्रजा ने बनवाया। यह पार्क नानाभाई खाट और कालीबाई की याद मे था। पार्क में दोनों की प्रतिमाएं स्थापित की गई। 19 जून को रास्तापाल गांव में मेले का आयोजन होता है। इस दिन हजारों की संख्या में लोग एकत्र होते हैं। ये सब लोग रास्तापाल गांव के आसपास से आते हैं। इस दिन बच्चे, बडे़, बूढे़ सभी शहीदों की प्रतिमा के सम्मुख मौन खडे़ होते हैं। इस तरह वह सभी उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, सभी की आंखें उनकी याद मे नम हो उठती हैं।