आम की किस्मों के नाम हमेशा गरीब को भ्रम में डालते है। पोस्ट पढ़ते-पढ़ते आप राजनीति में मत घुसना क्योंकि यह आम आदमी का मसला है।
अभी तक इस सीजन में ‘आम’ के दर्शन नहीं हुए। वैसे भी ‘आम’ से हम जैसे ‘आम लोगों’ का खास वास्ता नहीं है, क्योंकि फल का नाम भले ही परमात्मा ने ‘आम’ रख लिया लेकिन मेरे जैसे ‘आम’ के बस में नहीं आया यह कभी। हाँ, कभी- कभी हमारे शहर के एकमात्र प्रसिद्ध ज्यूस सेंटर ‘लक्ष्मी ज्यूस सेंटर’ में हमारे परम् मित्र इसका स्वाद टेस्ट करा लेते थे, लेकिन इस बार सत्यानाश हो इस कोरोना का अब तक चखा नहीं।
आज सुबह सब्ज़ी लेने बाजार गया तो एक फ्रुट्स लॉरी पर अच्छी किस्म के आम दिखे, भाव पूछा तो पता चला 350/- रुपए किलो, मैंने कहा -”आम सही नहीं लग रहे हैं।” वापस आ गया। अब बेचारे लॉरी वाले को क्या मालूम ‘आम’ तो अच्छे ही थे, यह मेरे वाले ‘आम’ नहीं थे। चलिए आपको मेरे वाले ‘आम’ से परिचय करवाता हूँ।
दरअसल इस देश में ‘आम’ को फलों का राजा कहा जाता है। इस देश मे ‘आम’ की स्थिति बिल्कुल प्रजातंत्र की तरह है। अच्छी किस्म का ‘आम’ कभी भी ‘आम व्यक्ति’ को नसीब नहीं हुआ। अच्छी किस्म के आम को आम व्यक्ति सिर्फ महसूस कर सकता है, दूर से देख सकता है लेकिन वह उसे मिलता नहीं है।
आम की सीजन शुरू होती है तब यह फलों का राजा छोटे शहरों में 400 से 500 रुपये किलो में बिकता है। वैसे तो अच्छी किस्म जैसे रत्नागिरी, हापुस वगैरह मुम्बई जैसे महानगरों में जब शुरू- शुरू में आता है तो यह हजारों रुपये पेटी में बिकता है, इतना महंगा कि करोड़पति परिवार ही इसका मूल्य चुका सकते हैं। फिर धीरे- धीरे यह दूसरे लोगों तक पहुंचता है, लेकिन वह किस्म दूसरे दर्जे एरोप्लेन, अल्फांसो आदि होती है।
देश के दूसरे हिस्सों में वैसे तो रत्नागिरी, हापुस व अच्छी किस्म (क्वालिटी) के आम बिकते ही नहीं हैं, क्योंकि उन्हें खरीदने लायक ग्राहकों का यहाँ सर्वदा अकाल रहता है लिहाजा दूसरी हापुस की क्वालिटी बिकती है जो 300 रुपये से 400 रुपए किलो तक मिलता है।
अब आप अंदाजा लगाइए कि 10 रुपये किलो प्याज़ तलाशने वाला ‘आम आदमी’ हापुस जैसा आम खा सकता है? कदापि नहीं! वह तो अपनी तलब सड़क किनारे तम्बू गाड़कर आम रस बेचने वाले से 10 या 15 रुपए का एक गिलास आम ज्यूस पीकर मिटाता है। अब यक्ष प्रश्न यह भी है कि उस आम के गिलास में आम कितना होता है, यह तो सिर्फ बेचने वाले को ही पता होता है।
वैसे गरीब तबके के मेरे जैसे लोगों के लिए आम की एक विशेष किस्म आती है जिसका नाम हमेशा भ्रम पैदा करता है। उसका नाम है ‘बादाम’, अब नाम बादाम लेकिन यह आम की गरीब किस्म होती है जो शुरू में 100 रुपए बिकती है, फिर धीरे धीरे इसका भाव कम होता जाता है। यहाँ जब बादाम किस्म का भाव व्यक्ति की किस्म से मिलता है, तब वह इसे खरीदकर खाता है।
वैसे मध्यम वर्ग के लिए एक विशेष किस्म और आती है जिसे ‘केसर’ नाम दिया गया है। आम की यह केसर किस्म मध्यम वर्गीय परिवार की फेवरेट किस्म समझ सकते हैं। इसका भाव शुरू में कुछ ज्यादा होता है लेकिन बाद में हैसियत से मिलना शुरू हो जाता है।एक विशेष बात कहनी जरूरी है कि कुछ सभ्य लोग आम को काटकर खाते हैं व मेरे जैसे असभ्य लोग चूस कर खाते हैं। वैसे तो हम रस निकालकर इसमें रोटी भी खाते हैं। हमारे जैसे परिवार में आम का महत्व इस बात से समझें कि जिस दिन आम का रस निकालते हैं, उस दिन सब्ज़ी नहीं बनाते। जो ज्यादा सभ्य, शालीन व थोड़े उच्च वर्ग के लोग है वह मिक्सी में रस निकालकर उसमे दूध, घी मिलाकर बढ़िया गाढ़ा रस पीते है, या यूं कहें कि चम्मच से खाते हैं।
मेरे परिवार में आम को मिक्सी जैसी टेक्नोलॉजी की जरूरत नहीं पड़ती क्योकि हम लोग आम का पूरा रस निकालते है, रस गुठली सहित निकालते हैं। गुठली को भी पूरा निचोड़ते है, ज्यादा तंगी चल रही है तो गुठली को पानी मे धोते हैं ताकि आम का पूरा रस निकल जाए। उसके बाद उसे घर के बागड़बिल्लो को चूसने के लिए दे दिया जाता है। आम को इतना चूसा जाता है वह खुद आह भरकर कहता है- ”रहने दो कमीनों, उगने लायक तो छोड़ो।”
यहाँ सही तरीके से ‘आम’ को भी पता चलता है, उसका रस कैसे निकलता है! रस निकल जाने के बाद घर की मुखिया औरत घर के सदस्यों व निकले आम का तुलनात्मक अध्ययन करती है, उस हिसाब से उसमे पानी मिलाकर रस तैयार होता है। वैसे सदस्य ज्यादा है तो ज्यादा पानी मिलाकर शक्कर की मात्रा बढ़ा दी जाती है। वैसे भी हम लोग असली रस के आदि होते नहीं इसलिए उस आम रस को भी बड़े ही चाव से खाते हैं। प्रतिदिन से एक- दो रोटी रस में ज्यादा खाते है।वैसे जून माह में जब बरसात दस्तक देती है तब एक और अंतिम किस्म आम की बाज़ार में आती है जो बिल्कुल गरीब लोगों के लिए होती है उसका नाम है ‘लँगड़ा’। लँगड़ा आम एक तरह से पैसे से लँगड़े लोगों केलिए राम बाण की तरह है।
फलों के राजा आम की किस्म हमेशा व्यक्ति की औकात अनुसार वर्षों पहले ही बन गई थी, तब से यूं ही बिक रही है। फलों का राजा ‘आम’ हमेशा ही गरीब व अमीर व्यक्ति में भेदभाव से बिकता रहा है, जो ‘आम’ तो है लेकिन ‘आम व्यक्ति’ के नसीब में नहीं है। जब अच्छी किस्म के आम अमीर लोग खाते हैं तो आम को ‘बादाम’ का नाम देकर गरीब को बेचा जाता है ताकि गरीब भी इस भ्रम में रहे कि वह भी “आम” खाता है।
आम आदमी आम के नाम केसर, हापुस, बादाम, रत्नागिरी जैसे कीमती नामों में उलझा रहता है जबकि उसके हिस्से में सिर्फ लँगड़ा आम ही आता है। आम आदमी के लक्षण भी ऐसे ही हैं व किस्मत भी लँगड़ी…। आम के नाम पर खास लोग मज़े करते हैं, जब आम खुद लँगड़ा होकर बाज़ार में आता है तब यह खास लोग बाज़ार में आम खाने नहीं आते।
आम की लंगड़ा किस्म बरसात के मौसम के आगमन पर बाज़ार में आती है। लँगड़ा का सहयोग करने के लिए एक किस्म दसहरी आती है जो स्वयं भी गरीब है इसलिए लँगड़े का साथ निभाती है।
बाज़ार में आने वाली अंतिम सड़ी गली आम की क़िस्म गरीब को चूसने के लिए मिलती है। गरीब माँ- बाप अपने बच्चों को उसे देते हैं, सड़ा भाग फेंककर बचे अच्छे भाग को खाते हुए भी गरीब बस्तियों के बच्चे इतने ही खुश होते है जितने अमीर घर के बच्चे रत्नागिरी खाते हुए होते हैं।
दरअसल देश की एक आबादी के लिए नाम मायने नहीं रखता, बस मिल जाये यह मायने रखता है। गरीब की रसोई में मैनुकार्ड की सुविधा नहीं होती, यहाँ राशन है या नहीं यह मायने रखता है। आज़ादी के बाद से ही आम आदमी को लँगड़ा बनाकर रख दिया गया है। आम आदमी ने केसर, बादाम व हापुस की चाहत में हर चेहरे व पार्टी को अवसर दिया लेकिन किसी की नीयत नहीं बदली, चेहरे बदलते रहे लेकिन गरीब की किस्मत से लँगड़ा आम नहीं हटा।
आज भी कुछ नहीं बदला, वही बेबसी व वही कोरोना।