कमलादेवी चट्टोपाध्याय
(3 अप्रैल 1903 – 29 अक्टूबर 1988)
स्वतंत्रता संघर्ष के ऐतिहासिक युग की जब भी किताबों और लेखों में बात होती है तो वहां कुछ गिने-चुने ही महान क्रांतिकारी और समाज सुधारकों की चर्चा होती है। स्वतंत्रता सेनानियों की इस सूची में कुछ ऐसे नाम भी शामिल हैं जो लोकप्रियता, लंबे-लंबे भाषणों और राजनीति करने वालों के पीछे कहीं छिप से गए। ऐसा ही एक नाम है समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, गांधीवादी और भारतीय हस्तकला के क्षेत्र में नई रोशनी की किरण लाने वाली ‘कमलादेवी चट्टोपाध्याय’ का।
घटना वर्ष 1930 की है जब कमलादेवी चट्टोपाध्याय (27 वर्ष) को ख़बर मिली कि महात्मा गांधी डांडी यात्रा के ज़रिए ‘नमक सत्याग्रह’ की शुरुआत करेंगे। जिसके बाद देश भर में समुद्र किनारे नमक बनाया जाएगा। लेकिन इस आंदोलन से महिलाएं दूर रहेंगी। महात्मा गांधी ने आंदोलन में महिलाओं की भूमिका चरखा चलाने और शराब की दुकानों की घेराबंदी करने के लिए तय की थी लेकिन कमालदेवी को ये बात खटक रही थी। अपनी आत्मकथा ‘इनर रिसेस, आउटर स्पेसेस’ में कमलादेवी ने इस बात की चर्चा की है। वो लिखती हैं “मुझे लगा कि महिलाओं की भागीदारी ‘नमक सत्याग्रह’ में होनी ही चाहिए और मैंने इस संबंध में सीधे महात्मा गांधी से बात करने का फ़ैसला किया।” महात्मा गांधी की आदर्शवादी दुनिया में स्त्रियों और पुरुषों की शारीरिक बनावट के अनुसार काम अलग-अलग होने चाहिए थे। वे आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी के पक्षधर नहीं थे।
महात्मा गांधी उस वक्त सफ़र कर रहे थे। लिहाज़ा कमलादेवी उसी ट्रेन में पहुंच गईं जिसमें गांधी थे और वो उनसे मिलीं। ट्रेन में महात्मा गांधी से उनकी मुलाक़ात छोटी थी लेकिन इतिहास बनने के लिए काफ़ी थी। पहले तो महात्मा गांधी ने उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन कमलादेवी के कुशल बुद्धिमत्ता पूर्ण तर्क सुनने के बाद कि स्वतंत्रता आंदोलनों में महिलाओं की भागीदारी आवश्यक है, महात्मा गांधी ने ‘नमक सत्याग्रह’ में महिला और पुरुषों की बराबर की भागीदारी पर हामी भर दी। महात्मा गांधी का ये फ़ैसला ऐतिहासिक था। कमलादेवी की इस कोशिश के बाद ही नमक आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय रूप से भाग लिया।
इस फ़ैसले के बाद महात्मा गांधी ने ‘नमक सत्याग्रह’ के लिए दांडी मार्च किया और बंबई में ‘नमक सत्याग्रह’ का नेतृत्व करने के लिए सात सदस्यों वाली टीम बनाई। इस टीम में कमलादेवी और अवंतिकाबाई गोखले शामिल थीं।
पुलिस से संघर्ष कर कमलादेवी और उनके साथियों ने नमक बनाया और पैकेट बनाकर बेचना शुरू कर दिया। एक दिन वो बंबई स्टॉक एक्सचेंज में दाख़िल हुईं और वहां भी नमक के पैकेट नीलाम किए। स्टॉक एक्सचेंज में मौजूद लोग जोश में आकार ‘महात्मा गांधी की जय’ के नारे लगाने लगे। शकुंतला नरसिम्हन ने अपनी किताब ‘कमलादेवी चट्टोपाध्याय -दी रोमांटिक रिबेल’ में इस घटना का ज़िक्र किया है।
शकुंतला नरसिम्हन के मुताबिक़, कमलादेवी को स्टॉक एक्सचेंज में नमक नीलामी के बाद एक और विचार आया और वो हाई कोर्ट पहुंच गईं। हाई कोर्ट में मौजूद मैजिस्ट्रेट से कमलादेवी ने पूछा कि क्या वो ‘फ्रीडम सॉल्ट’ यानी आज़ादी का नमक ख़रीदना चाहेंगे। मैजिस्ट्रेट ने इस पर क्या कहा ये तो नहीं मालूम लेकिन इस घटना से कमलादेवी की निडरता की कहानी दूर-दूर तक फैल गई। कमलादेवी के निडर व्यक्तित्व के पीछे उनकी मां और नानी की बड़ी भूमिका थी।
न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर और महिलाओं के लिए काम करने वाली ग़ैर-सरकारी संस्था की संस्थापक रुचिरा गुप्ता का कहना है, “इस क़दम से आज़ादी के आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी। पूरी दुनिया ने देखा कि महिलाओं ने कंधे से कंधा मिलाकर नमक क़ानून तोड़ा। इससे कांग्रेस पार्टी में, राजनीति में और आज़ादी के बाद भी महिलाओं की भूमिका बदल गई”।
कमलादेवी चट्टोपाध्याय का जन्म 3 अप्रैल 1903 को कर्नाटक के मैंगलोर शहर में हुआ था। वह एक संपन्न ब्राह्मण परिवार से संबंध रखती थी। उनके पिता अनंत धारेश्वर उस समय मैंगलोर के जिला कलेक्टर थे और इनकी मां का संबंध राजघराने से था। हालांकि 19वीं सदी में लड़कियों के लिए स्कूल की व्यवस्था नहीं थी लेकिन कमलादेवी की मां गिरजाबाई की पढ़ाई-लिखाई घर पर ही पंडितों के ज़रिए हुई। पति की मृत्यु और सामाजिक दबाव के चलते मां गिरजाबाई ने 11 साल की उम्र में बेटी, कमलादेवी की शादी करवा दी।
लेकिन क़रीब एक-डेढ़ साल बाद ही कमलादेवी के पति की मृत्यु हो गई। भले ही उनकी मां अपनी बेटी के बाल-विवाह के लिए उस समय मान गई थीं लेकिन कमलादेवी की मां ने अपनी बेटी के लिए उन सारे रीति रिवाजों को मानने से इनकार कर दिया जो ब्राह्मण समुदाय में एक विधवा के लिए तय थे। उन्होंने ना कमलादेवी का सिर मुंडवाया, ना सफ़ेद साड़ी पहनाई और ना ही किसी अकेली कोठरी में रहकर पूजा पाठ करने को मजबूर किया। गिरजाबाई ने समाज की परवाह किए बग़ैर न केवल कमलादेवी को स्कूल भेजा बल्कि खुलकर आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखाया।
गिरजाबाई महिला एक्टिविस्ट पंडिता रामाबाई और रामाबाई रनाडे की समर्थक थीं और उन्होंने कमलादेवी के सामने एनी बेसेंट को एक रोल मॉडल की तरह पेश किया और कमलादेवी ने इन प्रभावशाली महिलाओं से बहुत कुछ सीखा।
चेन्नई के क्वीन्स मेरी कॉलेज में पढ़ते समय कमलादेवी की मुलाक़ात सरोजनी नायडू के भाई हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय से हुई। हरिन्द्रनाथ अपने समय के जाने-माने कवि और नाटककार थे। 20 साल की उम्र में कमलादेवी ने हरिन्द्रनाथ से शादी की। हरिन्द्रनाथ से शादी पर भी कट्टरवादी तत्वों ने काफी आलोचना की क्योंकि कमलादेवी एक विधवा थीं और जब आगे चलकर कमलादेवी ने हरिन्द्रनाथ से तलाक़ लेने का फैसला किया तब भी उंगलियां उठीं। लेकिन इन सबको नज़रअंदाज़ कर कमलादेवी ने महिलाओं के सामने हमेशा एक उदाहरण पेश किया।
लेकिन इन सबसे पहले वो महात्मा गांधी से प्रभावित थीं। साल 1920 के शुरुआती दिनों से ही राजनीति में उनका रुझान साफ़ था। जब महात्मा गांधी ने 1923 में असहयोग आंदोलन की शुरुआत की तब कमला देवी अपने पति के साथ लंदन में थीं। उन्होंने वापस आने का फ़ैसला किया और कांग्रेस सेवा का दल का हिस्सा बन गईं।
वर्ष 1926 में उनकी एक अहम मुलाक़ात हुई। मुलाक़ात थी मार्ग्रेट कजन्स से। मार्ग्रेट कजन्स आयरलैंड की महिलावादी नेता थीं। मार्ग्रेट ने ऑल इंडिया विमेंस कॉंफ़्रेंस का गठन किया और कमलादेवी इस संस्था की पहली महासचिव बनी।
मार्ग्रेट कजन्स के प्रोत्साहन से कमलादेवी ने जल्द ही एक और बड़ा कदम उठाया जो उन्हें भारतीय राजनीति में एक अनूठा स्थान देता है। मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में पहली बार महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला और महिलाओं के इस हक़ को दिलाने में मार्ग्रेट कजन्स की पहल अहम मानी जाती हैं। महिलाओं को मत देने का अधिकार तो मिल गया था लेकिन प्रांतीय विधानसभा के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार महिलाओं को नहीं था।
साल 1926 में तब के मद्रास प्रोविंशियल लेजिसलेचर (आज के विधानसभा के समकक्ष) के लिए चुनाव हुए। चुनाव से ठीक पहले महिलाओं को चुनाव लड़ने की अनुमति दी गई। मार्ग्रेट कजन्स के प्रोत्साहन के बाद कमलादेवी ने चुनाव लड़ा भी।
लेखिका रीना नंदा अपनी किताब, ‘कमलादेवी चट्टोपाध्याय- ए बॉयोग्राफी’ में लिखती हैं कि इस चुनाव में प्रचार के लिए काफ़ी कम समय बचा था। कमलादेवी अभी तक वोटर के तौर पर पंजीकृत नहीं थीं। आनन-फानन में चुनाव की तैयारी की गई। कजन्स ने महिला कार्यकर्ताओं का समूह बनाया और धुंआधार प्रचार करना शुरू कर दिया। इसमें कमलादेवी के पति हरिंद्रनाथ ने नाटकों और देशभक्ति के गीत प्रचार के दौरान गा कर उनका प्रचार किया।
आख़िरी मौके पर चुनाव मैदान में उतरी कमलादेवी बहुत कम मतों से हार गईं लेकिन अपने इस क़दम के साथ ही चुनाव लड़ने वाली पहली महिला बनीं। कमलादेवी के इस क़दम से राजनीतिक पदों का दरवाज़ा महिलाओं के लिए खुल गया। इस चुनाव से कमलादेवी का राजनीतिक सफ़र शुरू हो चुका था जिसका लक्ष्य कभी भी पद नहीं था बल्कि बदलाव था।
वो 1927-28 में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी की सदस्य बनीं और बाल विवाह के ख़िलाफ़ क़ानून, सहमति की उम्र क़ानून के साथ-साथ रजवाड़ों के भीतर आंदोलन पर कांग्रेस की नीति तय करने में अहम भूमिका अदा की। आज़ादी के बाद कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने कोई भी राजनीतिक पद लेने से साफ़ इनकार कर दिया।
मद्रास प्रांत के तात्कालिन मुख्यमंत्री के.कामराज उन्हें राज्यपाल बनाना चाहते थे। जब उन्होंने ये प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू के सामने रखा तो नेहरू ने कहा कि आप ख़ुद कमलादेवी से पूछिए, अगर वो हां, कहें तो कोई आपत्ति नहीं होगी। कामराज समझ गए कि कमलादेवी कभी किसी सरकारी पद पर बैठने के लिए तैयार नहीं होंगी।
बहरहाल, आज़ादी के ठीक बाद कमलादेवी ने अपना पूरा ध्यान शरणार्थियों के पुनर्वास पर लगा रखा था। को-ऑपरेटिव यानी सहकारिता आंदोलन में उनका गहरा विश्वास था। उन्होंने इंडियन कोऑपरेटिव यूनियन का गठन किया।
कमलादेवी ने लोगों की सहभागिता के सहारे शरणार्थियों के लिए शहर बसाने का प्लान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा. जवाहरलाल इस शर्त पर मान गए कि सरकार से किसी भी तरह की आर्थिक सहायता की उम्मीद न रखी जाए। कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने इंडियन को-ऑपरेटिव यूनियन की मदद से भारत पाकिस्तान के बंटवारे के बाद नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर प्रोविंस से आए शरणार्थियों को दिल्ली के क़रीब बसाया, जो आज फ़रीदाबाद नाम से जानी जाती है।
कमलादेवी एक उद्यमी के रूप में भी अपनी पहचान बनाने में सफल रही। उन्होंने अंग्रेज़ों के शासनकाल में धराशायी हो चुके हस्तशिल्प कला और हथकरघों को पुनर्जीवित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस क्षेत्र में उनकी सफलता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे जब भी किसी गांव, कस्बे की ओर रुख करती थी तो वहां के बुनकर, जुलाहे, हस्तशिल्प कारीगर उन्हें सम्मान देने के लिए अपनी पगड़ी तक उतारकर उनके चरणों में रख दिया करते थे। हस्तशिल्प कलाओं, हथकरघों को राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान देने का श्रेय भी कमलादेवी को जाता है। यही कारण है साल 1952 में ‘ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट’ का प्रमुख कमलादेवी को नियुक्त किया गया। भारत में मौजूद ‘ क्राफ्ट काउंसिल ऑफ इंडिया ‘ जैसे संस्थान इन्हीं के प्रयासों का एक नतीजा हैं।
भारतीय नाट्य परंपरा और दूसरी परफॉर्मिंग आर्ट्स को बढ़ाने के लिए कमलादेवी ने इंडियन नेशनल थिएटर की स्थापना की। यही आगे चलकर भारत का प्रसिद्ध नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा बना। कमलादेवी की कोशिशों से संगीत नाटक अकादमी की स्थापना हुई जो भारतीय गायन एवं नृत्य परंपराओं को आगे बढ़ाने वाले अग्रणी संस्थान हैं। इतना ही नहीं कमलादेवी ने एक अभिनेत्री के रूप में भी काम किया। इनकी दो मूक फिल्में ‘मृच्छाकटिका’ (साल 1931) और तानसेन (साल 1943) में अभिनय किया था। फिल्म ‘शंकर पार्वती’ (साल 1943) और ‘धन्ना भगतट (साल 1945) में भी इन्होंने महत्वपूर्ण किरदार निभाया था। कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर कई किताबें भी लिखी जिनमें ‘द अवेकेनिंग ऑफ इंडियन विमेन’, ‘जापान इट्स वीकनेस एंड स्ट्रेंथ’, ‘इन वॉर टर्न चाइना’, ‘टूवार्ड्स ए नेशनल थेटर’ जैसी किताबें शामिल हैं।
कमला देवी को भारत के सर्वोच्च सम्मान पद्म विभूषण से भी को सम्मानित किया गया। साल 1966 में एशियाई हस्तियों और संस्थाओं के लिए विशेष कार्य करने पर इन्हें रमन मैग्सेसे अवार्ड से भी नवाज़ा गया। इतना ही नहीं इन्हें साल 1974 में लाइफटाइम एचीवमेंट पुरस्कार और शांति निकेतन द्वारा देसिकोत्तम जैसे सर्वोच्च सम्मान भी मिले हैं। प्रकृति प्रेमी, समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, नारीवादी महिला, अभिनेत्री, लेखिका, उद्यमी, राजनेता, बहुमुखी प्रतिभा की धनी कमलादेवी का नाम इतिहास के पन्नों में कहीं दब सा गया। 29 अक्टूबर 1988 को 85 वर्ष की आयु में इनका निधन हो गया लेकिन जो धरोहर कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने छोड़ी है उससे दरकिनार कर पाना असंभव है।