ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
धरती अम्बर एक बराबर सोना पीतल इक जैसे
मेरी आँख से देखो ज़म ज़म और गंगाजल इक जैसे
जैसी करनी वैसी भरनी अंत भला तो सब ही भला
सब्र हो चाहे मेहनत हो वो दोनों के फल इक जैसे
तू है मीरा जैसी तो मैं दोस्त सुदामा जैसा हूँ
कृष्ण के दोनों दीवाने हैं दोनों पागल इक जैसे
जिस्म तुम्हारा ख़ुशबू ख़ुशबू जिससे मिलो, हो वो ख़ुशबू
आठ पहर हो महके महके तुम और संदल इक जैसे
इश्क़ इबादत, इश्क़ है पूजा, इश्क़ दुआ है, इश्क़ सज़ा
इश्क़ तो है इक आग का दरया इश्क़ और दलदल इक जैसे
ज़ुल्फ़ घटाएँ, आँख पयाले, होंट गुलाबों जैसे हैं
जिस्म धनक के जैसा उसका आँचल बादल इक जैसे
सिक्ख, ईसाई, मुस्लिम, हिन्दू भारत माँ की औलादें
लोहनी, क्रिसमस, ईद, दिवाली ख़ुशी के सब पल इक जैसे
‘मोहसिन’ की तक़दीर में लिक्खा है जब दर दर फिरना तो
गाँव शहर भी इक जैसे हैं सेहरा जंगल इक जैसे
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ग़ज़ल
जिस तरह धूप का रंगत पे असर पड़ता है
नफ़्स का वैसे इबादत पे असर पड़ता है
ऐसे मुझ पर भी तेरे ग़म के निशाँ दिखते हैं
जैसे मौसम का इमारत पे असर पड़ता है
सिर्फ माहौल से फिकरें नहीं बदला करतीं
दोस्तों का भी तबीअत पे असर पड़ता है
दुश्मनों से ही नहीं होता है ख़तरा लाहक़
बाग़ियों से भी हुकूमत पे असर पड़ता है
अब समझ आया सबब मुझ को मेरी पस्ती का
मांग घटती है तो क़ीमत पे असर पड़ता है
भूक नेकी की लगे या के लगे दुन्या की
भूक लगती है तो सूरत पे असर पड़ता है
रिज़्क़ रुकता है नमाज़ों के क़ज़ा करने से
निय्यतें बद हों तो बरकत पे असर पड़ता है
साफ़ दिखती है बुढ़ापे में क़ज़ा, सच तो है
उम्र के साथ बसीरत पे असर पड़ता है
पास रहने से ही बढ़ती नहीं चाहत ‘मोहसिन’
फासलों से भी मोहब्बत पे असर पड़ता है
– मोहसिन आफ़ताब