आज ‘विश्व विज्ञान दिवस’ है अर्थात मनुष्य के लिए स्वयं पर गर्व करने का दिन। आदिम सभ्यता से आधुनिक काल की यात्रा के मध्य इस पृथ्वी पर उपस्थित समस्त प्रजातियों में यह मनुष्य ही है जिसने अपनी मेहनत और बुद्धि के बल पर सर्वश्रेष्ठ होने का घमंड बरक़रार रखा है। विज्ञान के दम पर अपनी इस गौरव यात्रा में अनवरत चलता हुआ वह अत्यधिक प्रसन्न है। क्यों न हो! दो-तीन दशक पूर्व जो बातें स्वप्नलोक की कोई अनूठी पटकथा सी लगतीं थीं, आज वे बड़ी सहजता से उसके रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं। फिर चाहे वह किसी प्रिय से वीडियो कॉल के माध्यम से यूँ बात करना हो, मानो आमने-सामने ही बैठे हैं या फिर घर बैठे मात्र एक क्लिक भर से बिजली, टेलीफोन के बिल का जमा हो जाना। यही कारण है कि इंटरनेट पर नित नए विकास से लेकर, अंतरिक्ष की सैर तक की चर्चाएं भी अब उतनी आश्चर्यजनक नहीं लगतीं!
हम जिस काल के साक्षी बन रहे हैं, वह नवीन अनुसंधानों और अथाह संभावनाओं का युग है। यहाँ सब कुछ संभव है। ऐसे में मनुष्य के मस्तिष्क और उसके बनाए, समझे विज्ञान के प्रति सिवाय धन्यवाद के भला और क्या ही भाव उपज सकता है! लेकिन जब संवेदनाओं और मनुष्यता पर विचार करने बैठती हूँ तब हृदय ठिठक जाता है। क्या आपको नहीं लगता कि इतनी भौतिक सुविधाओं को भोगते और तकनीकी माध्यम से नित सरलीकरण की ओर अग्रसर जीवन को जीना, अब पहले से अधिक तनावपूर्ण और दुष्कर होता जा रहा है? न केवल सामाजिक तौर पर हम अपना जुड़ाव और संवेदनशीलता खोने लगे हैं बल्कि हमारे मानसिक, शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसके दुष्प्रभाव दिखने लगे हैं। विज्ञान की दी हुई सुविधाओं से हम इतने आह्लादित हो गए कि उन्हें भोगने की तमीज़ ही भुला बैठे!
बदलता सामाजिक व्यवहार
व्हाट्सएप अफवाह का तो कहना ही क्या! अब अध्ययन करने का कष्ट कौन उठाए! तो आँख मूँद राजनीति एवं स्वार्थ से प्रेरित लिखे गए हर शब्द पर विश्वास किया जाता है। इसके चलते चाहे परिवार के सदस्य हों या वर्षों पुराने मित्र, वे सब दुश्मनों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। जबकि व्हाट्सएप का मूल उद्देश्य रिश्तों को क़रीब लाना और जोड़ना था लेकिन सब बिखरने लगा। अब हर व्यक्ति संदेह के घेरे में है। यात्राओं में भी देखिए तो अब कोई, किसी से बात नहीं करता। सब मोबाइल में ही घुसे रहते हैं।
पहले कैमरा होता था तो फोटो खींचना भी एक ईवेंट होता था। अब मोबाइल में कैमरा आ जाने के बाद किसी को, किसी की जरूरत ही नहीं। बस सेल्फ़ी क्लिक किया और हो गया। जबकि सेल्फ़ी की सुविधा उस समय के लिए है, जब आपके साथ कोई न हो या समूह चित्र लेना हो।
टीवी एक बड़ी तस्वीर की तरह दीवार पर टंगा है क्योंकि ओटीटी ने मनोरंजन की जिम्मेदारी संभाल ली। अब साथ बैठकर कार्यक्रम देखने की परंपरा भी नष्टप्राय है। अपने-अपने कमरे में बैठ मोबाइल या लैपटॉप पर कार्यक्रम देख लिए जाते हैं। वो साथ में टीवी देखते समय की मस्ती और ठहाके अब नहीं सुनाई आते।
कोई आता-जाता तो स्टेशन लेने जाने या छोड़ने की रीत थी। उसका भी अपना एक आनंद था। उबर या ओला कैब की उपलब्धता ने बहुत सुविधा दी लेकिन वो अपनापन भरा साथ चला गया। अपनी गाड़ी से कहीं बाहर जाना हो तो यात्रा रोमांचक होती थी। साथ हँसते थे, मजे लेते थे। घूमते- पूछते हुए जाने में सामाजिक जुड़ाव भी बनता था लेकिन जीपीएस के आते ही हम पूरी तरह से उस पर निर्भर हो गए। जैसे स्वयं पर से विश्वास ही उठ गया।
सुविधायुक्त जीवन-शैली
रिमोट कितनी छोटी सी वस्तु है लेकिन इसके आने के बाद से हम सोफ़े पर और आराम से बैठने लगे हैं। टीवी, लाइट को ऑन-ऑफ करने के लिए एलेक्सा है ही। बस चादर तानी और सो गए। फिर स्वास्थ्य संबंधी परेशानी के चलते मॉर्निंग वॉक पर डिजिटल घड़ी पहनकर जाना शुरू करते हैं जिससे हमारे क़दमताल का लेखा-जोखा मिलता रहे। मशीनें ही बता रहीं कि शरीर के घटकों का अनुपात क्या चल रहा। प्रत्येक व्यक्ति आधा डॉक्टर है। धड़कनों की गति और ऑक्सीजन प्रतिशत का हिसाब उसके पास है।
संतुलित भोजन को एक तरफ रख प्रोटीन शेक और मल्टी विटामिन की गोलियों को ‘फिटनेस मंत्र’ मानकर जीने लगे हैं। दिन-रात चौके चूल्हे में उलझी गृहिणियों के लिए भी अब किचन और घर के प्रबंधन हेतु मशीनें हैं। उस पर खाने की होम डिलीवरी से अब माँ के हाथ का खाना, ममता सब ज़ोमेटो और स्विगी ने संभाल लिया है। सोचना होगा कि इनके अधिकाधिक प्रयोग से कहीं हम पहले से अधिक अकर्मण्य और बीमारियों को न्योता देने वाले तो नहीं बन रहे?
सुविधाओं की तो अंतहीन सूची है। हमें बिल भरने की लंबी पंक्तियों में, घंटों खड़े रहने से आजादी मिली। अब किसी बाबू को नहीं कोसना होता है और बैंकिंग भी घर बैठे हो जाती है।
अमेजॉन, फ्लिपकार्ट सपनों की होम डिलीवरी करने लगे हैं। गोबर के उपलों से लेकर हीरों के हार तक सब ऑनलाइन उपलब्ध है। खरीदा जा सकता है, लौटाया जा सकता है। ऐसे में बाज़ार जाने की जरूरत ही नहीं। यहाँ डिस्काउंट तो मिलते ही हैं, साथ ही समय की भी बहुत बचत होती है। अभी ऐसे उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ेगी ही।
समय कहाँ गया?
कुल मिलाकर कहना यह है कि विज्ञान ने हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाया, समय की बचत की लेकिन यह बचा हुआ समय किधर है? क्या अब हमारे पास, अपनों से दो मीठे बोल बोलने का समय दिखता है कहीं? पहले तमाम असुविधाओं में रहते हुए भी किसी से भी मिलना हो, तो बेझिझक जाया करते थे लेकिन अब बिना सूचित किये जाना भी असभ्यता है क्योंकि सभी व्यस्त हैं।
तात्पर्य यह कि विज्ञान ने हमें सुविधा दी परंतु सामाजिकता की बलि हमने स्वयं ही चढ़ाई है। तभी तो मनुष्य इतना अकेला और अवसादग्रस्त हो गया है कि उसकी समझ ही खोती जा रही है। उंगलियों पर बड़ी सरलता से किये जाने वाले हिसाब भी वह अपने मोबाइल का केलकुलेटर खोलकर करता है। उसका आत्मविश्वास पहले सा नहीं रहा। तकनीक पर निर्भरता इस हद तक कि अब घरवालों के फोन नंबर भी याद नहीं रखे जाते।
कहीं उसकी बुद्धि छीनी तो नहीं जा रही? रोबोट और आर्टिफ़िशियल इन्टेलीजेंस का प्रवेश हो चुका है। इनकी बहुलता के बाद अपनी बुद्धि और संवेदनशीलता को गिरवी रखने वाले मनुष्य के पास अपनी मनुष्यता सिद्ध करने को बचेगा क्या? कहीं हम स्वयं मशीन में परिवर्तित तो नहीं हो रहे?
इधर मोबाइल, तमाम तरह के सूक्ष्म कैमरा के माध्यम से हुए अपराध तथा बढ़ते साइबर क्राइम ने विज्ञान के दुरुपयोग की भयावह तस्वीरें भी सामने रख दी हैं। कोई किसी को पीट रहा हो, दुर्घटनाग्रस्त हो, हत्या हो रही हो वहाँ उपस्थित अधिकांश लोग उसे बचाने के स्थान पर कंटेंट अपलोड करने में रुचि रखते हैं। इस दुष्चक्र से कौन, कब तक बच सकेगा, यह देखना होगा। लेकिन तकनीक के माध्यम से हमारी मानसिकता, सोच, संवेदनशीलता का जिस तरह अपहरण एवं क्षरण किया जा रहा है वह और भी भयाक्रांत कर देने वाला है!
विज्ञान ने तो जीवन को सरल बनाने के उद्देश्य से हमें सुविधाएं दीं लेकिन हमने ही उनका दुरुपयोग कर जीवन जटिल बना दिया है। हमें चाहिए था कि सुविधाओं को भोगते हुए, मानवीय मूल्यों को संरक्षित रखें लेकिन हम अपनी सामाजिकता और उत्तरदायित्व को विस्मृत कर उसे नरक के द्वार तक ले आए हैं। विज्ञान ने हमसे हमारी मनुष्यता नहीं छीनी बल्कि झूठे अहंकार और स्वार्थ के चलते हमने ही, उसे ताक पर रख दिया है। वस्तुतः हमने पाया विज्ञान से है और जो गंवाया, उसमें हमारी मूर्खता ही एकमात्र कारण है।
काश विज्ञान का कोई अविष्कार मनुष्य को धर्म, जाति, सम्प्रदाय की बेड़ियों से मुक्त कर जीना सिखा दे, प्रेमभाव से इस सृष्टि को पूजना सिखा दे! क़ाश कोई मनुष्य को उसकी मनुष्यता लौटा दे! राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियाँ आज भी प्रासंगिक लगती हैं –
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी