मूल्याँकन
‘101 महिला ग़ज़लकार’: मेरी नज़र में
– डॉ. कविता विकास
साहित्य की वह चर्चित विधा, जो धीरे–धीरे ख़ासो-आम के बीच तेज़ी से अपना स्थान बनाकर विचार और भाषा का आधार बनती जा रही है, वह है ग़ज़ल की विधा। यह लोक की भाषा है, यथार्थ की भाषा है। नित नए रूप को अख़्तियार करती ग़ज़ल अपने आयाम को विस्तृत बनाती जा रही है। एक अनुभूति, जिसकी बयानी एक–दूसरे से अलग होते हुए भी किसी भी दूसरे के मिज़ाज को उद्वेलित कर सकती है या फिर दूसरे की अनुभूति का प्रतिरूप बन जाती है, वह ग़ज़ल सहजता से अपना ली जाती है।
एक दशक पहले तक कुछेक महिलाओं को छोड़कर इस विधा में पुरुषों का ही दबदबा था। समय में क्रांतिकारी परिवर्तन आया है। विभिन्न सोशल साइट्स पर अनेक समूहों में हर विधा की कक्षाएँ चल रही हैं। इनमें महिलाओं की संख्या बहुतायत में है। आसमान में पंख फैलाकर उड़ने की ख्वाहिश रखने वाली महिलाएँ रदीफ़ और क़ाफ़िये की बंदिश में भी सुकून तलाश रही हैं।
एक महिला जब अपनी भावनाओं को शब्द देती है तो वह हृदय के काफ़ी क़रीब होती हैं क्योंकि स्त्री सुलभ संवेदना में मातृत्व और वात्सल्य का व्यापक पुट होता है, जिसमें सारी सृष्टि का सार छुपा है। इसलिए दो मिसरे में मुहब्बत की दास्तान कहते–कहते ग़ज़ल कब ज़िन्दगी की खुरदरी ज़मीन पर उतर गयी, पता ही नहीं चला। पुरुषों के समानांतर जब महिला ग़ज़लकारों की ग़ज़लें भी पढ़ी और गायी जाने लगीं, तब अनेक सम्पादकों ने उन पर काम करना शुरू किया। बेहतरीन महिला ग़ज़लकारों से दुनिया को वाक़िफ़ कराने की ज़िम्मेवारी जब मेरे अज़ीज़ मित्र व बहुविध सम्पन्न के. पी. अनमोल ने ली तो मुझे यक़ीन करना पड़ा कि अब वक़्त आ गया है कि स्त्रियाँ भी पढ़ी जाने योग्य हो गयी हैं। वे अपने इल्म और हुनर की पहचान बन गयी हैं।
सम्पादक के. पी. अनमोल स्वयं भी एक स्थापित ग़ज़लकार हैं और अनगिनत लोगों को उन्होंने ग़ज़ल की बारीकियाँ समझायीं हैं। किताबगंज प्रकाशन के संस्थापक डॉ. प्रमोद सागर के भी हम शुक्रगुज़ार रहेंगे कि उन्होंने इस संकलन के प्रकाशन में निःस्वार्थ सेवा दी। आज के युग में सम्पादक-प्रकाशक द्वय का यह संयोजन दुर्लभ है।
‘101 महिला ग़ज़लकार’ की ग़ज़लों का यह संकलन अपने आप में पूर्ण है। मुहब्बत ज़रूरत है लेकिन सामाजिक ज़रूरतें भी जीने की ललक पैदा कर देती हैं। मीनेष शर्मा ‘अनक़ा’ ने इसे कुछ यूँ लिखा है-
मुहब्बत ज़िन्दगी के वास्ते माना ज़रूरी है
ज़रूरत की ज़रूरत भी समझ आना ज़रूरी है
युवा ग़ज़लकार प्रेम के अलावा सामयिक विषयों पर ख़ूब लिख रहीं हैं। बेरोज़गारी, दैनिक जीवन की आपाधापी, संघर्ष और तनाव भी इस संकलन के मुख्य विषय रहे हैं। उर्दू के साथ देवनागरी का भी प्रयोग ख़ूब हुआ है।
छोटी बहर में डॉ. नसीमा निशा ने पते की बात कही हैं-
देखो तो दीवार कहाँ है
दो धारी तलवार कहाँ है
तुम भी इंसां हम भी इंसां
सोचो तो तकरार कहाँ है
भौतिकतावादी युग में दिखावा और छद्म सोच के बोलबाले को भारती शर्मा यूँ दिखलाती हैं-
जहाँ से चले थे वहीं पर खड़े हैं
सभी योजनाएँ मशीनी–मशीनी
डॉ. भावना में समय की परख कितनी सशक्त है, देखिए-
बड़ी होकर न जाने कितने किससे वो सुनाएगी
मेरी नवजात बच्ची तो अभी से बात करती है
रिज़वान बानो ‘इकरा’ ने तो मानो सम्पूर्ण नारी जाति की व्यथा को अपनी पंक्तियों में ढाल हम सब की बात कह दी-
इतने किरदार निभाते हुए थक जाती हूँ
ज़िन्दगी तुझको मनाते हुए थक जाती हूँ
ग़ज़ल में प्रेम के क़िस्सों को चंद मिसरे में समेटने की पुरानी शगफ़ है। डॉ. अंजना सिंह सेंगर ने कितने सरल शब्दों में आकर्षण बांधा है-
ख़्वाहिश हो मेरी, प्यास हो, हसरत भी तुम्हीं हो
दिल का सुकूनो-चैन हो राहत भी तुम्हीं हो
प्रेम तब सूफ़ी हो उठता है, जब डॉ. शशि जोशी ‘शशी’ कहती हैं-
ख़ुद को बेहद हल्का–फ़ुल्का पाती हूँ
जब–जब अपने भीतर जाना होता है
वैसे तो इस किताब की हर ग़ज़लगो बेहतरीन हैं, पर कहीं–कहीं भावाव्यक्ति की गहराई में मेहनत करने की थोड़ी और ज़रूरत है, यह बात उन विशेष ग़ज़लकारों को भी पता है। बहर पर आधारित, क़ाफ़िये और रदीफ़ की बंदिशें कथ्य को मुक्तछंद-सा उड़ने नहीं देतीं, पर यही ग़ज़ल के शिल्प का आकर्षण है। सम्पादक के. पी. अनमोल ने ग़ज़लों को बड़ी बारिक़ी से परखा है। इसलिए जिनकी भी ग़ज़लों का समावेश है, वे इस विधा की कुशल जानकार अवश्य होंगी। वैसे भी एक सफल शायर वही है, जिसकी भाषा सरल और बोधगम्य है।
मैं प्रकाशक डॉ. प्रमोद सागर की दूरदर्शिता की क़ायल हूँ, जिन्हें मालूम है कि आने वाले दिनों में ग़ज़ल हिंदी साहित्य के फलक़ का ध्रुवतारा है। मैं तहे-दिल से सम्पादक और प्रकाशक द्वय का शुक्रिया करती हूँ और भविष्य में भी ऐसे नेक कार्य जारी रखने के लिए शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ।
यह किताब अमेज़न पर उपलब्ध है-
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– डॉ. कविता विकास