उभरते-स्वर
ज़िन्दगी
पल-पल रंग बदलती
तो कभी ख़ुशबू-सी महकती है ज़िन्दगी
बचपन संग फूलों-सी खिलती
तो कभी तितलियों-सी उड़ती है ज़िन्दगी
ख़्वाबों में ख़ूब चहकती
तो कभी जवानी संग खेलती है ज़िन्दगी
ख़ुशियों में इठलाती
तो कभी ग़मो में रुलाती है ज़िन्दगी
नदियों-सी मचलती
तो कभी समन्दर-सी ठहर जाती है ज़िन्दगी
चाहत के आसमां में उड़ती
तो कभी हमसफ़र बन जाती है ज़िन्दगी
राधा-सी चाह सिखाती
तो कभी कृष्ण बन जाती है ज़िन्दगी
शिकवों में अकड़ती
तो कभी रहमो-करम में ख़ुदा-सी बन जाती है ज़िन्दगी
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अंतर
मेरे पुरखों का मस्त हाल था
न किसी बात का मलाल था
यह उन दिनों का जलाल था
हर कोई उनका हलाल था
जो कुछ था मुँह पर
पीठ पीछे कुछ नहीं
आजकल बहुत कुछ है पीठ पीछे
और मुँह पर कुछ नहीं
है नकली मुस्कुराहट
हर चेहरे पर सही
दिल में है गुब्बार भरा
पर लबों पर कुछ नहीं
रखते थे जो ख़बर मुहल्ले भर की
पर आज कहाँ बताते हैं
वह बात अपने मन की
लड़ाने पेंच पतंगों के
लांघ जाते थे छतें कितनी
पर आज कहाँ हैं सीढ़ियाँ उनकी
ढूँढते हैं आज हम पीढ़ियाँ जिनकी
हो जाता था मन उदास
हाल जानकर पड़ोसी का
अब रहता तो है कोई
नाम तक पता नहीं
दौड़ते-दौड़ते पता नहीं
कब सुबह से शाम हो गयी
अरे पहले काशी-सी पावन थी
कब गलियाँ बदनाम हो गयी
– मधु वैष्णव