अच्छा भी होता है
जहाँ जीवन की विषमताओं, समाज की कुरीतियों, व्यर्थ के दंगे-फ़साद, न्याय-अन्याय की लड़ाई, अपने-पराए, रिश्ते-नाते, ईर्ष्या, अहंकार और ऐसी ही तमाम विसंगतियों में उलझकर जीना दुरूह होता जा रहा है वहीं कुछ ऐसे पल, ऐसे लोग अचानक से आकर आपका दामन थाम लेते हैं कि आप अपनी सारी नकारात्मकता त्याग पुन: आशावादी सोच की ओर उन्मुख हो उठते हैं. बस, इसी सोच को सलामी देने के लिए हमारे इस स्तंभ ‘अच्छा’ भी होता है!, की परिकल्पना की गई है, इसमें आप अपने या अपने आसपास घटित ऐसी घटनाओं को शब्दों में पिरोकर हमारे पाठकों की इस सोच को क़ायम रखने में सहायता कर सकते हैं कि दुनिया में लाख बुराइयाँ सही, पर यहाँ ‘अच्छा’ भी होता है! – संपादक
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ज़िंदगी मुस्कुराती है!
कल शाम मैं किसी काम से बैंक शाखा से बाहर आया था और ये सारा नज़ारा देखा।
बिजली के खम्भों के बीच एक कबूतर बुरी तरह फंसा हुआ था। पतंग के तेज धागों में उसका एक पंख उलझाकर तड़प रहा था। उसका साथी वहीँ से अपने प्रिय को तड़पता और छटपटाता देखते हुए पुकार रहा था। इतना करुण क्रंदन कि मन दुखी हो गया।
इधर फंसे हुए कबूतर का छटपटाना जारी था…नीचे लोगों को फ़ोटो और वीडियो के लिए एक अच्छा विषय मिल गया था।
मैंने अपने एक मित्र पडोसी दुकानदार से कहा, चलो कबूतर को बचाते हैं। फिर दो लोग और आ गए और शुरु हुआ हमारा रेस्क्यू ऑपरेशन।
बांस और डंडे का इंतज़ाम किया और पास की बिल्डिंग पर चढ़ कर उसे निकालने की कोशिश की पर नायलॉन का मजबूत धागा था। कबूतर और ज्यादा उलझ गया था।हम समझ चुके थे कि अगर बहुत जल्दी ये नहीं निकला तो दम तोड़ देगा!
फटाफट प्लानिंग हुयी। बांस पर एक हंसिया बाँधा गया और उससे उन धागों को काटा। तब कबूतर नीचे गिरा, जहाँ पहले से मौजूद लोगों ने एक कपडे पर उसको झेल लिया।
थोड़ी देर बाद वो कबूतर का जोड़ा मुंडेर पर जा बैठा और टुकुर टुकुर देख रहा था।
हमारा ऑपरेशन कबूतर संपन्न हुआ… सब वापस काम पर चले …मन में ख़ुशी थी और होठों पर मुस्कान!
– शशांक शेखर