ज़रा सोचिए
औपचारिकता
आप सब से बातें करते-करते एक अपनापन महसूस किया है मैंने। अपनापन महसूस करते-करते मैंने ये भी महसूस किया कि लेखक और पाठक के बीच भी एक रिश्ता होता है। लेखन पठन के बिना अधूरा है तो ज़ाहिर-सी बात है कि लेखक भी पाठक बिन अधूरा ही है ना? मैं तो हृदयतल से स्वीकार करती हूँ कि मेरा मेरे पाठकों से एक अपनत्व भरा रिश्ता है इसलिए कुछ भी लिखते या कहते समय मुझे डर लगता है कि मेरी बातों से मेरे लेखन से या मेरे व्यवहार से किसी के हृदय को ठेस न पहुँचे।
पिछले हफ्ते मुझे एक पाठक ने कहा- “मैडम आपके लेख और रचनाएँ अक्सर पढ़ता हूँ और सहमत भी होता हूँ, पर कई बार आप से असहमत होते हुए भी आलोचनात्मक तरीके से बात नहीं कह पाता। मैंने पूछा, ऐसा क्यूं? उन्होंने जवाब दिया कि आप हर बार पहले ही हर विचार पर असहमत होने वाले पाठक से कह देती हैं कि ये आपके व्यक्तिगत विचार हैं और कोई असहमत हो या किसी को आपकी बातों से ठेस लगे तो क्षमायाचना भी कर लेती हैं। क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि किसी ने कभी आपसे कुछ कहा है? आप ऐसा क्यों करती हैं? उस वक़्त व्यक्तिगत व्यस्तता के चलते जवाब नहीं दे पाई और मैंने सिर्फ मुस्कुरा कर हाथ जोड़ लिए।
आज जैसे ही मैं लिखने बैठी, एकाएक वे सवाल मेरे दिमाग में कब्ज़ा करके बैठ गए। मैंने सोचा जब तक ये सवाल मेरे ज़हन में रहेंगे, मैं और कुछ न सोच पाऊंगी न लिख पाऊंगी। इसलिए सोचा पहले यही मसला सुलझा लूँ। इसलिए मैंने वो ही सवाल खुद से किये कि मैं हर बार अग्रिम क्षमायाचना करके आत्मरक्षा करती हूँ या वाकई मैं किसी का दिल नहीं दुखाना चाहती?
मेरे मन ने एक बार मुझसे कहा कि तुममें आत्मविश्वास की कमी है, इसलिए तुम ठोस तरीके से अपनी बात को साबित करने की बजाय व्यक्तिगत विचारों की श्रेणी में रखती हो ताकि कोई आपत्ति करे तो तुम बचकर निकल जाओ। दूसरे ही पल मुझे महसूस हुआ कि मैं किसी पर अपने विचार थोपकर उसे दुखी या नाराज़ नहीं करना चाहती इसलिए पहले ही क्षमा मांग लेती हूँ। अगले ही पल एक सवाल खुद-ब-खुद मेरे मन ने ही किया मुझसे, कि मैं अक्सर सभी को धन्यवाद भी कहती हूँ, मुझे पढ़ने और समझने के लिए, अपना कीमती समय मेरे लिए निकलने के लिए। जबकि मैं अपने पाठकों से व्यक्तिगत रुप से परिचित भी नहीं हूँ तब कई बार लोग ये कहते हैं कि अपनों को धन्यवाद कैसा? हम तो सोशल नेटवर्क में मित्र हैं आदि इत्यादि।
बहुत कशमकश में हूँ। जवाब आपसे ही पूछना चाहती हूँ। भारतीय संस्कृति है कि किसी को ठेस लगे तो माफ़ी मांग लो या कोई मदद करे तो धन्यवाद कहो। बहुत सुन्दर और सुसंस्कृत परम्परायें हैं ये। मैं इन्हें बेहद पसंद भी करती हूँ। पूर्णतः सहमत हूँ कि माफ़ी मांगने या धन्यवाद कहने से कोई छोटा या बड़ा नहीं होता बल्कि रिश्तों में माधुर्य बढ़ जाता है।
पर मेरा सवाल बिल्कुल अलग है, मैं हमेशा की तरह अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करते हुए असहमत लोगों से अग्रिम क्षमायाचना करती हूँ।
सब कहते हैं
दोस्तों और अपनों से
कैसा ‘थैंक्स’ और कैसा ‘सॉरी’?
पर कभी सोचा है
कोई खुशी देने वाला
या कोई दर्द देने वाला
कोई अपना ही होता है
मैं सोचती हूँ
जब हमें गैरों से
न कोई अपेक्षा होती न रिश्ता तो
कैसा ‘थैंक्स’ और कैसा ‘सॉरी’?
मुझे लगता है
अपनों से कुछ पाया तो ‘आभार’
और अपनों का दिल दुखाया तो
‘क्षमा’ दूरियां मिटाती है
जब अपनों से
हम ये औपचारिकता वाजिब नहीं मानते
और जब गैरों से
नजीकियों या दूरियों की परवाह नहीं
तो
ये औपचारिता गैरों से ही क्यूं?
और
अपनों से क्यों नहीं?
आपको क्या लगता है? अंत में मेरा आप सबसे सवाल ये भी है-
जब जीवन में सारे एहसान हमने अपनों से ही लिए
हर बार की हमने मनमानी अपनों के दिल तोड़ने के लिए
तो क्या अपनों का हक़ नहीं कि जताया जाए उन्हें अपनापन
क्या ‘माफ़ी’ और ‘शुक्रिया’ बने हैं सिर्फ गैरों के लिए?
– प्रीति सुराना