ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कभी आँखें दिखाते हो कभी ख़ंजर चलाते हो
ग़रीबों पर बताओ इस तरह क्यों ज़ुल्म ढाते हो
तुम्हारे कारखानों में हैं मरते लोग आये दिन
तुम उनकी मौत पर आँसू मगरमच्छी बहाते हो
रखोगे क़ैद कब तक रौशनी को अपने महलों में
उजालों को भी तुम अपना-पराया क्यों सिखाते हो
दवा-दारू, मिठाई, तेल-घी की छोड़ दो बातें
मुहब्बत में भी तुम तो ज़ह्र नफ़रत का मिलाते हो
पढ़ाते पाठ लोगों को सचाई और नेकी का
स्वयं बाज़ार में ईमान की बोली लगाते हो
वो चीखें जो उड़ा देतीं तुम्हारी नींद रातों की
उन्हें गूँगा बनाने का हुनर क्यों आजमाते हो
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ग़ज़ल-
जाल फेंका है मछेरे ने विकल हैं मछलियाँ
बच सकीं इनसे अगर तो वे बनेंगी सुर्खियाँ
भूख, डर और बेबसी ही हर तरफ दिखती मगर
राजधानी की परेडों में मनोहर झाँकियाँ
कब तलक बैठे रहोगे यूँ रखे माथे पे हाथ
अब बदलनी होंगी तुमको कुछ तो अपनी नीतियाँ
देख मौका मार लेते हैं गुलाटी शीघ्र ही
राजनेताओं में होतीं हैं यही तो खूबियाँ
बम-तमंचों का ही चारों ओर दिखता शोर है
आज के माहौल की क्या-क्या गिनायें खामियाँ
झूठ, धोखा और कपट ही उनकी जब फितरत हुई
क्यों टिके विश्वास तब उनके हमारे दरमियाँ
– मालिनी गौतम