ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
वक़्त की बदली हुई तासीर है
मुँह पे ताले, पाँव में जंज़ीर है
झूठ, सच में फर्क मुश्किल हो गया
किस तरह उलझी हुई तक़रीर है
दर्द फैलाया दवाओं की तरह
कौनसी राहत की ये तदबीर है
रंग फीके हैं मगर चुभते हुए
ये सियासत की नई तस्वीर है
नफरतों पर नफरतों पर नफरतें
नफरतों की उठ गयी प्राचीर है
धुंध का पुरज़ोर अँधा अनुकरण
रौशनी की अब यही तक़दीर है
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ग़ज़ल
ग़म से गर तार तार हो जाते
मौत के हम शिकार हो जाते
सींच देता अगर कोई हमको
पेड़ हम छायादार हो जाते
हमको मिल जाती सरपरस्ती तो
हम भी तुम में शुमार हो जाते
थाम सकते थे ज़ुर्म की ऊँगली
और हम मालदार हो जाते
मिल तो जाता उधiर में सबकुछ
हम मगर क़र्ज़दार हो जाते
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ग़ज़ल
लूटकर दान कर दिया तुमने
किस पे अहसान कर दिया तुमने
चंद लोगों के शौक़ की ख़ातिर
हमको वीरान कर दिया तुमने
द्वार पर बैठी करती रखवाली
माँ को दरबान कर दिया तुमने
रास्ता लूटमार वालों का
कितना आसान कर दिया तुमने
अपनी कुर्सी बचाए रखने को
बेटा कुर्बान कर दिया तुमने
शर्म आती है एक झूठे का
भव्य सम्मान कर दिया तुमने
कौनसी नीतियों को ले आये
सबको बेईमान कर दिया तुमने
पेश्तर अनमने से मौसम को
और बेजान कर दिया तुमने
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ग़ज़ल
सत्य के मुँह पर जब भी ताले होते हैं
अच्छाई के देश निकाले होते हैं
हुई ज़रा बरसात उफनने हैं लगते
छोटे जितने नदिया नाले होते हैं
लुका-छिपी का खेल वही तो कर पाते
रस्ते जिनके देखे भाले होते हैं
आज सियासत है ऐसे ही लोगों की
जिनके तन उजले ,मन काले होते हैं
कर्म करो ,फल छोड़ो वाले सूत्र सभी
शोषण चक्र बढ़ाने वाले होते हैं
धर्म धुरंधर वे ही माने हैं जाते
जिनके हाथों गड़सा, भाले होते हैं
मेहनतकश की मुट्ठी खाली रहती है
हाथों में बस फूटे छाले होते हैं
चिकने, गोरे कहलाते हैं सभ्य सभी
बुरे लोग सब नाटे, काले होते हैं
– महेश कटारे सुगम