ग़ज़ल
ग़ज़ल-
करते हैं ख़्वाब रक़्स मेरे सर के आसपास
जैसे किसी की प्यास समंदर के आसपास
जिसको मैं सोचता था, है ख़ुशबू के इर्द-गिर्द
मुझको लगा वो सिर्फ़ है पत्थर के आसपास
होने से डर रहा हूँ मैं अपने ही रूबरू
गोया अँधेरी रात हो खंडर के आसपास
उठती है लपट बारहा भीतर से तेज़-तेज़
लगता है कोई आग है इस घर के आसपास
उठता हूँ सुब्ह ज़ेह्न में भर कर मैं रौशनी
आती है रात को परी बिस्तर के आसपास
चुभता है इक ख़याल-सा ख़्वाबों में बार-बार
उठता है एक दर्द-सा नश्तर के आसपास
उगती है मेरे जिस्म से इक भूख रोज़-रोज़
महका-सा एक ख़्वाब है मंज़र के आसपास
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ग़ज़ल-
ख़ुदा बनने की ख़्वाहिश है, ख़ुदा से डर भी लगता है
ज़ुबाँ तक आ तो जाए सच, सज़ा से डर भी लगता है
करम था दोस्तों का, बाँध दी ऐसी हवा मेरी
हवा में उड़ रहा हूँ मैं, हवा से डर भी लगता है
उसे पक्का यक़ीं है जो कहूँगा सच कहूँगा मैं
मुझे अपनी इसी झूठी अदा से डर भी लगता है
तुझे आँखों में सपनों की जगह रखकर भी सोया हूँ
तुझे अपना समझने की ख़ता से डर भी लगता है
बड़ी ही मुफ़लिसी जिनके बिना महसूस होती है
मुझे उस अपनेपन, यारी, वफ़ा से डर भी लगता है
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ग़ज़ल-
आपको महफि़ल में आये इक ज़माना हो गया
फ़ासलों को, क्या बहुत मुश्किल मिटाना हो गया
छोड़ दे अब दोस्ती, वादे, वफ़ा कुछ और कर
यह चलन इस दौर में बेहद पुराना हो गया
जि़न्दगी ने प्यार से की आँसुओं की परवरिश
दिल ग़मों का मुस्तकि़ल शाही ख़ज़ाना हो गया
इक तरन्नुम जि़न्दगी को वक़्त ऐसी दे गया
आज रोना हो गया, कल मुस्कुराना हो गया
यूँ हुआ नज़्दीकियाँ बर्दाश्त से बाहर हुईं
फ़ासला तो और भी मुश्किल निभाना हो गया
जो मेरे अपने थे उनको शुक्रिया कहते हुए
रख के मैं कांधों पे दुःख घर से रवाना हो गया
ज़ख़्म तो पहले ही दीवाने थे मेरे नाम के
उन ही दीवानों का अब मैं ख़ुद दीवाना हो गया
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ग़ज़ल-
बिखरा हुआ लौटा है अब ख़त के जवाब में
रखा कभी जो फूल था उसकी किताब में
आख़िर मैं हारा ढूंढकर अपने वजूद को
कमबख़्त! जाने जुड़ गया किसके हिसाब में
थी शर्त, करना पार है होशो-हवास से
डूबा हुआ हालाँकि था दरिया सराब में
बेशक नहीं मिलना मगर मिलने का दे वचन
इक ख़्वाब यूँ भी जोड़ता जा मेरे ख़्वाब में
काँटों से बचके दर्द का जो लुत्फ़ खो दिया
वो चीज़ तुझको मिल नहीं सकती गुलाब में
– कृष्ण सुकुमार