ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
गाँव सूना है, घर-नगर सूना
अबकी मंज़र है इस क़दर सूना
बज़्म सजती रही है ख़ुशियों की
पर ग़म-ए-दिल पे है असर सूना
अब कहाँ से उठेगी किलकारी
हादसा कर गया है घर सूना
जब है ख़ामोश दिल सुनामी से
अब करेगी भी क्या लहर सूना
बाग़बां है या है कोई सैय्याद
कर रहा बाग़ का शज़र सूना
दिल की मनहूसियाँ ही साथी हैं
अब तो लगता है सब शहर सूना
जब ख़ुशामद ख़ुशी की ज़ामिन हो
हो ‘अना’ का न क्यों असर सूना
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ग़ज़ल-
आसमां गर तू बना तो मैं धरा बन जाऊँगी
तू तलाशेगा जो मंज़िल रास्ता बन जाऊँगी
यूँ ही तुम देखा करोगे ख़्वाब में मुझको अगर
मैं तुम्हारी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा बन जाऊँगी
साहिलों को चूम करके मौजें मिटती हैं सदा
ख़त्म ख़ुद को करके मैं भी बा-वफ़ा बन जाऊँगी
बे-सबब आदत न डालो मुझसे मिलने की कभी
मैं तुम्हारी ख़्वाहिशों का दायरा बन जाऊँगी
धड़कनें मेरी अगर यूँ ही ग़ज़ल कहती रहीं
तो फिर ऐसा लग रहा मैं शाइरा बन जाऊँगी
जब कभी मुश्किल में होना याद कर लेना ‘अना’
मुश्किलों में मैं तुम्हारा हौसला बन जाऊँगी
– अना इलाहाबादी