ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
प्रखरतम धूप बन राहों में जब सूरज सताता है
कहीं से दे मुझे आवाज़ तब पीपल बुलाता है
ये न्यायाधीश मेरे गाँव का अपनी अदालत में
सभी दंगे-फ़सादों का पलों में हल सुझाता है
कुमारी माँगती साथी, विवाहित वर सुहागन का
है पूजित विष्णु सम देवा, सदा वरदान दाता है
बड़े-बूढ़ों की ये चौपाल, बचपन का बने झूला
बसेरा पाखियों का भी, सहज छाया लुटाता है
नवेली कोपलें धानी, जनों को बाँटतीं जीवन
पके फल से हृदय-रोगी, असीमित शान्ति पाता है
युगों से यज्ञ का इक अंग, हैं समिधाएँ पीपल की
इसी के पात हाथी, चाव से, ख़ुश हो चबाता है
घनी चाहे नहीं छाया, मगर पत्ते चपल, कोमल
हवाओं को प्रदूषण से, ये बन प्रहरी बचाता है
मनुष इसकी विमल मन से, करे जो ‘कल्पना’ सेवा
भुवन की व्याधियों से इस, जनम में मोक्ष पाता है
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ग़ज़ल-
मानसूनी बारिश के, क्या हसीं नज़ारे हैं
रंग सारे धरती पर, इन्द्र ने उतारे हैं
छा गया है बागों में, सुर्ख रंग कलियों पर
तितलियों के भँवरों से, हो रहे इशारे हैं
सौंधी-सौंधी माटी में, रंग है उमंगों का
तर हुए किसानों के, खेत-खेत प्यारे हैं
मेघों ने बिछाया है, श्याम रंग का आँचल
रात हर अमावस है, सो गए सितारे हैं
सब्ज़ रंगी सावन ने, सींच दिया है जीवन
बूँद-बूँद बारिश ने, मन-चमन सँवारे हैं
भाव रंग भीगे-से, गा रहे सुमंगल गीत
धार-धार अमृत से, तृप्त स्रोत सारे हैं
ज्यों बदलते मौसम हैं, रंग भी बदल जाते
‘कल्पना’ जुड़े इनसे, शुभ दिवस हमारे हैं
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ग़ज़ल-
जब वनों में गुनगुनातीं, गर्मियाँ फूलों भरी
पेड़ चम्पा की लुभातीं, डालियाँ फूलों भरी
शुष्क भू पर ये कतारों में खड़े दरबान से
दृष्ट होते सिर धरे ज्यों, टोपियाँ फूलों भरी
पीत स्वर्णिम पुष्प खिलते, सब्ज़ रंगी पात सँग
मन चमन को मोह लेतीं, झलकियाँ फूलों भरी
बाल बच्चों को सुहाता, नाम चम्पक-वन बहुत
जब कथाएँ कह सुनातीं, नानियाँ फूलों भरी
मुग्ध कवियों ने युगों से, जान महिमा पेड़ की
काव्य ग्रन्थों में रचाईं, पंक्तियाँ फूलों भरी
पेड़ का हर अंग करता, मुफ्त रोगों का निदान
याद आती हैं पुरातन, सूक्तियाँ फूलों भरी
सूख जाते पुष्प लेकिन, फैलकर इनकी सुगंध
घूम आती विश्व में भर, झोलियाँ फूलों भरी
मित्र ये पर्यावरण के, लहलहाते साल भर
कटु हवाओं को सिखाते, बोलियाँ फूलों भरी
यह धरोहर देश की, रक्खें सुरक्षित ‘कल्पना’
युग युगों फलती रहें, नव पीढ़ियाँ फूलों भरी
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ग़ज़ल-
गर्मियों की शान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
धूप में वरदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
हर पथिक हारा-थका, विश्राम है पाता यहाँ
भेद से अंजान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
नीम, पीपल हों या वट, रखते हरा संसार को
गूढ यह विज्ञान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
हाँफते विहगों का प्यारा, नीड़ इनकी डालियाँ
और इनकी जान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
रुख बदलती है मगर, रूठे नहीं मुख मोड़कर
मोहिनी मृदु गान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
जो न साधन जोड़ पाते, वे शरण लेते यहाँ
दीन का भगवान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
‘कल्पना’ मिटने न दें, जीवन के अनुपम स्रोत को
सृष्टि का अनुदान है, ठंडी हवा हर पेड़ की
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ग़ज़ल-
ग्रीष्म ऋतु में संगिनी-सी, नीम की शीतल हवा
दोपहर में यामिनी-सी, नीम की शीतल हवा
झौंसता वैसाख जब, आती अचानक झूमकर
सब्ज़ वसना कामिनी-सी, नीम की शीतल हवा
ख़ुशबुएँ बिखरा बनाती, खुशनुमाँ पर्यावरण
शांत कोमल योगिनी-सी, नीम की शीतल हवा
खिड़कियों के रास्ते से, रात में आती सखी
मंत्र-मुग्धा मोहिनी-सी, नीम की शीतल हवा
तप्त सूरज रश्मियों को, ढाल बनकर रोकती
भोर में मृदु-रागिनी-सी, नीम की शीतल हवा
बाँटती जीवन बिठाती, गोद में हर जीव को
प्यार करती भामिनी-सी, नीम की शीतल हवा
रोग दोषों को मिटाती, फैलकर इसकी महक
बाग वन में शोभिनी-सी, नीम की शीतल हवा
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ग़ज़ल-
स्वर्ग के सुख त्यागकर, भू को चली भागीरथी
पर्वतों की गोद से, होकर बही भागीरथी
कैद कर अपनी जटा में, शिव ने रोका था उसे
फिर बढ़ी गोमुख से हँसती, वेग-सी भागीरथी
धाम कहलाए सभी जो, राह में आए शहर
रुक गई हरिद्वार में, द्रुतगामिनी भागीरथी
पाप धोए सर्व जन के, कष्ट भी सबके हरे
और पूजित भी हुई, वरदायिनी भागीरथी
अब युगों की यह धरोहर, खो रही पहचान है
भव्य भव की भीड़ में, बेदम हुई भागीरथी
घाट टूटे पाट रूठे, जल प्रदूषित हो चला
कह रही है दास्तां, दुख से भरी भागीरथी
देवताओं की दुलारी, दंग है निज हश्र से
मिट रहा अस्तित्व अब तो, घुट रही भागीरथी
कौन है? संजीवनी लाए, उसे नव प्राण दे
अमृता मृत हो चली, नाज़ों पली भागीरथी
जाग रे मनु, कल्पना! कुछ वो भगीरथ यत्न कर
खिलखिलाए ज्यों पुनः रोती हुई भागीरथी
– कल्पना रामानी