ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जिसे भूले, तुमको वही ढूँढती है
तुम्हें गाँव की हर ख़ुशी ढूँढती है
सुखाकर नयन जिसके आए शहर को
वो ममता तुम्हें हर घड़ी ढूँढती है
झुलाया कभी था सहारा दे तुमको
वो पीपल की डाली हरी ढूँढती है
चले आए रख लात सीने पे जिसके
तुम्हारे निशां वो गली ढूँढती है
उखाड़ी जहाँ से, जड़ अपनी वहीं पर
तुम्हें ‘कल्पना’ ज़िंदगी ढूँढती है
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ग़ज़ल-
जो रस्ते क्रूर होते, कंटकों वाले
चला करते हैं उन पर हौसलों वाले
जड़ों से हैं जुड़े तरुवर ये जो इनको
डरा सकते न मौसम आँधियों वाले
ये हैं बगुले भगत जो भोग की ख़ातिर
धरा करते वसन हैं योगियों वाले
सजग रहना सदा उन दुश्मनों से तुम
जो रख अंदाज़ मिलते दोस्तों वाले
तक़ाज़ा देश का है साथ जुट जाओ
भुलाकर भेद मस्जिद, मंदिरों वाले
मुड़े किस ओर जाने मुल्क की किश्ती
कि कर पतवार पर हैं लोभियों वाले
बसाओ दिल, समय है ‘कल्पना’ अब भी
कि लौटो छोड़कर घर पत्थरों वाले
– कल्पना रामानी