ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कब मिलोगे मीत, इस बाबत लिखा है
प्यार से मैंने तुम्हें यह ख़त लिखा है
मन तुम्हारा क्या मुझे अब भूल बैठा?
या कि तुमको अब नहीं फुर्सत, लिखा है
दिल धड़कता है तुम्हारा नाम लेकर
इस हृदय की हो तुम्हीं ताकत, लिखा है
ज़िंदगी में बस तुम्हें चाहा-सराहा
हो न अब चाहत मेरी आहत, लिखा है
रूठना या मान करना माना लेकिन
मत लगाना प्यार पर तोहमत, लिखा है
हो नहीं पाषाण तुम, मैं जानती हूँ
मन खँगालो मोम के पर्वत! लिखा है
कल्पना हो एक छोटा घर हमारा
बस यही है अब मेरी हसरत, लिखा है
*****************************
ग़ज़ल-
हो चला हर दिन मधुरतम, साथ तुम हो
जा छिपा थक हारकर गम, साथ तुम हो
मृदु हुई हैं शूल-सी चुभतीं हवाएँ
रस भरा है सारा आलम, साथ तुम हो
खिल उठीं देखो अचानक बंद कलियाँ
कर रही सत्कार शबनम, साथ तुम हो
फिर उगा सूरज सुनहरा ज़िंदगी में
गत हुआ कुहरे का मौसम, साथ तुम हो
बन चुके थे नैन नीरद जो हमारे
अब कभी होंगे न वे नम, साथ तुम हो
बाद मुद्दत चाँद पूनम का दिखा है
सिर झुका कर है खड़ा तम, साथ तुम हो
दीप फिर ऐसा जला बुझते हृदय में
तोड़ देंगी आँधियाँ दम, साथ तुम हो
इस जगत के बोझ बनते बंधनों से
कल्पना अब क्यों डरें हम, साथ तुम हो
*****************************
ग़ज़ल-
दृग खुले रखना किसी से प्रीत पल जाने के बाद
जग नहीं देता सहारा, पग फिसल जाने के बाद
चार होते ही नयन, कर लो हजारों कोशिशें
त्राण है मुश्किल, नज़र का बाण चल जाने के बाद
बाँध लो प्रेमिल पलों को, ज़िंदगी भर के लिए
फिर नहीं आता वही मौसम, निकल जाने के बाद
प्यार तो होता खरा, पर खार करता है जहाँ
इसलिए मिलते हैं दो दिल, शाम ढल जाने के बाद
सब्र से सींचो हृदय में, प्रेम रूपी बीज को
ख़ुशबुएँ देता रहेगा, फूल-फल जाने के बाद
प्रेम के अतिरेक का, कैसा मिला है फल उसे
जान पाता है कहाँ, परवाना जल जाने के बाद
क्यों डरें हम कल्पना जब मीत हर-दम साथ है
हाथ छूटेगा ये अब तो, दम निकल जाने के बाद
*****************************
ग़ज़ल-
कल हुआ जो वाक़या, अच्छा लगा
हाथ तेरा थामना अच्छा लगा
जिस्म तो काँपा जो तूने प्यार से
कुछ हथेली पर लिखा, अच्छा लगा
देखकर मशगूल हमको इस कदर
चाँद का मुँह फेरना, अच्छा लगा
आसमाँ पर बिजलियों की, कौंध में
बादलों का काफ़िला, अच्छा लगा
नाम ले तूने पुकारा जब मुझे
वादियों में गूँज उठा, अच्छा लगा
बर्फ में लिपटे पहाड़ों का बहुत
दूर तक वो सिलसिला, अच्छा लगा
कल्पना फिर वो तेरा वादा प्रियम!
उम्र भर के साथ का, अच्छा लगा
*****************************
ग़ज़ल-
मेरी एक छोटी-सी भूल की, है ये इल्तिज़ा कि सज़ा न हो
जो सज़ा भी हो तो मेरे खुदा, मेरा प्यार मुझसे जुदा न हो
बिना उसके फीके हैं राग सब, न लुभाती कोई भी रागिनी
है अधूरा सुर मेरे गीत का, जहाँ साथ उसका मिला न हो
वो नहीं अगर मेरे पास तो, कटे तारे गिन मेरी हर निशा
कोई पल गुज़रता नहीं कि जब, उसे याद मैंने किया न हो
मैं हूँ सोचती बनूँ मानिनी, वो मनाए मुझको बस एक बार
है ये डर मगर कि मेरी तरह, कहीं वो भी ज़िद पे अड़ा न हो
नहीं ग़म मुझे मेरे मन को वो, क्यों न आज तक है समझ सका
मेरा मन तो है यही चाहता, कभी मुझसे उसको गिला न हो
उसे ढूँढते ढली साँझ ये, तो भी आस की है किरण अभी
इन अँधेरों में मुझे थामने, किसी ओट में वो छिपा न हो
है तमन्ना बस यही कल्पना, वो नज़र में हो जियूँ या मरूँ
नहीं मुक्त होगी ये रूह भी, जो उसी के हाथों विदा न हो
– कल्पना रामानी