ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
रोशनी क्यों हर जगह पहुँची नहीं
अब भी वादों ने ख़ुशी सौंपी नहीं
किस तरह नग़में हवाओं के सुनें
सिर्फ़ तहख़ाने वहाँ, खिड़की नहीं
ज़लज़लों की ख़ूब चर्चा थी मगर
वह इमारत आज तक दरकी नहीं
साथ उसका एक जादू-सा लगे
दूर होते ही ख़ुशी ठहरी नहीं
आज फिर उसको समेटे थी हवा
बतकही से ख़ुशबुएँ सँभली नहीं
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ग़ज़ल-
क्या बचा धर्म और थाती है
सोचकर ख़ूब लाज आती है
हौसलों में बहुत दरारें हैं
ईंट-दर-ईंट थरथराती है
नफ़रतों के उजाड़ जंगल में
प्रेम की पौध सूख जाती है
जो उछल कर गिरी किनारों पे
ताप से छींट सूख जाती है
आजकल चाह-भर इरादे हैं
बात हर गाम बदल जाती है
– कैलाश नीहारिका