ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कान में क्यों घोलते हो शोर इतना, बस करो
जान ले लेगा शहर की उफ़ ये हल्ला, बस करो
ये मशीनें, गाड़ियाँ, ये घण्टियाँ, ये चिल्ल-पों
मत करो क़ुदरत की साँसों पर यूँ हमला, बस करो
इन हवाओं, पर्वतों, नदियों व झरनों की तरफ
प्यार से देखो कभी, नफ़रत का सौदा, बस करो
हाथ जोड़े कह रही है धार गंगा की सुनो
जान लेने पर तुली है अंध श्रद्धा, बस करो
बेज़ुबां इन जानवर और पंछियों को प्यार दो
छोड़ दो रूहों पे इनकी ज़ुल्म ढाना, बस करो
ठूँसते ही जा रहे हो केमिकल और पॉलीथिन
कोख में धरती की इतना ज़ह्र भरना, बस करो
जान लो पर्यावरण अनमोल है सबके लिए
डालते इसकी जड़ों में क्यों हो मट्ठा, बस करो
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ग़ज़ल-
छत पर पानी का इक बरतन रक्खा है
किसने धूप में ये जीवन-धन रक्खा है
प्यासे पंछी आकर प्यास बुझायेंगे
गरमी में राहत का साधन रक्खा है
अब धरती का सारा पानी सोखेगा
सूरज कुछ दिन गुस्से में तन रक्खा है
कैसे गज भर छाँव सड़क तक आयेगी
गमलों में जब सारा ही वन रक्खा है
काश कभी हम दो पल फ़ुरसत में सोचें
हाल धरा का क्या से क्या बन रक्खा है
बादल, नदिया, परबत, झरने, हल्की धूप
इस फोटो में हाय मेरा मन रक्खा है
क़ुदरत से खिलवाड़ के चलते ही अनमोल
मौत के मुँह में हमने जीवन रक्खा है
– के. पी. अनमोल