ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
आदमीयत को शर्मसार न कर
ज़ुल्म ऐसा भी मेरे यार न कर
कल को मुश्किल में डाल सकती हैं
छोटी बातों को दरकिनार न कर
भूल कब शक्ल ज़ुर्म की ले ले
एक ग़लती को बार-बार न कर
चीज़ नाज़ुक मिज़ाज है ये दिल
हर किसी पर इसे निसार न कर
कल ये बच्चा बिगड़ भी सकता है
इतना ज़्यादा इसे दुलार न कर
सोच पहले क़दम बढाने के
फिर बढ़ाकर क़दम विचार न कर
दिल बिछड़ने पे टूट जाता है
हद से ज़्यादा किसी को प्यार न कर
वो जो दिल में दिमाग़ रखते हैं
ज़िन्दगी में उन्हें शुमार न कर
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ग़ज़ल-
जहालत के अँधेरे में रहेगी रौशनी कब तक
परिंदों की तरह भटकेगा आख़िर आदमी कब तक
मुझे रैदास के कठवत से बाहर मत निकालो तुम
तुम्हारे पाप की ढोती रहूँगी गन्दगी कब तक
तड़पकर आसमां से पूछती है भूख मुफ़लिस की
ख़ुदाया! ये तो बतला दे करें हम बन्दगी कब तक
बहुत जल-जल के छोटी हो गयी है उम्र की बाती
कि इन बूढ़े चराग़ों में रहेगी ज़िन्दगी कब तक
हज़ारों दीप घाटों पर जले अच्छा लगा लेकिन
युवाओं के बुझे चेहरों पे आएगी ख़ुशी कब तक
ज़रूरी काम सारे तीरगी में कर रही दुनिया
सराही जाएगी ग़ज़लों में आख़िर चाँदनी कब तक
तबस्सुम, ज़ुल्फ़, लब, रुख़सार से बाहर भी दुनिया है
हिसारे-हुस्न में बँध कर रहेगी शायरी कब तक
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ग़ज़ल-
छुपा है शम्स हमारा कहाँ, चढ़े, तो चलें
हमारी सोच से कुहरा ज़रा हटे, तो चलें
इसी लिहाज़ में मंज़िल से रह गए पीछे
ये सोचकर कि जो आगे है वो बढ़े, तो चलें
किसे ग़रज़ है लड़ाई लड़े हमारे लिए
हमारी बात अगर सच मे सच लगे, तो चलें
उठा के सुबह, लगी पूछने मेरी ग़ैरत
जो ख़ुद को सोच रहे हों जगे हुए, तो चलें
फिर एक शाम परिंदे ने फड़फड़ा के कहा
दरख़्त सूख रहा है जो ये गिरे, तो चलें
हर इक क़दम पे क़ज़ा हमसफ़र रही लेकिन
तलाश करते रहे ज़िन्दगी मिले, तो चलें
दिया जला के रहा मुन्तज़िर मेरा हमदम
इधर फ़िराक़ में हम थे दिया बुझे तो चलें
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ग़ज़ल-
वफ़ा के दरिया में मछलियों का शिकार करते मगर मिलेंगे
नज़र से पर्दा हटा के देखो तुम्हें कई नामवर मिलेंगे
वो जाति, मज़हब की तंग गलियों में जाल अपना बिछा रहे हैं
उन्हें ख़बर जाहिलों के लश्कर कहाँ मिलेंगे, किधर मिलेंगे
न जाने कबसे भटक रहा हूँ मैं तिश्नगी ले के पनघटों पर
बताओ ऐसी जगह हो कोई जहाँ रसीले अधर मिलेंगे
अजब मुहब्बत का फ़लसफ़ा है फ़ना हुए गर क़रीब पहुँचे
शमा की लौ के किनारे देखो जले पतंगों के पर मिलेंगे
बहुत कठिन है सहेजे रखना, अजीब हैं आजकल के रिश्ते
जो घर के मुखिया से जाके पूछो तो घर के अंदर भी घर मिलेंगे
सिमटती जाती है रफ़्ता- रफ़्ता हमारे हिस्से की रौशनी भी
घिरे हैं हम बिल्डिंगों के वन में कहाँ से शम्सो-क़मर मिलेंगे
– जे. पी. नाचीज़