ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
वो बेवफ़ा है उसे क्या सिखा रहा हूँ मैं
वफ़ा की बात उसे क्यों बता रहा हूँ मैं
तमाम रात मुझे नींद कैसे आएगी
तमाम रात यही सोचता रहा हूँ मैं
वो ख़त जो अपने पते पर कभी नहीं पहुंचे
उन्हीं बेनाम ख़तों का पता रहा हूँ मैं
ख़फा-ख़फा सी रही है ये जिंदगी मुझसे
ख़फा-ख़फा ही सही चाहता रहा हूँ मैं
मैं उससे जब भी मिला हूँ, मिला सलीके से
ये और बात की अक़्सर ख़फा रहा हूँ मैं
वो एक शख़्स जो सबकी दुआ में है शामिल
उसी ही शख़्स को बस चाहता रहा हूँ मैं
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ग़ज़ल-
आया मेरा ख़याल फिर होगा
उनको ख़ुद से मलाल फिर होगा
आज फिर तुम मेरे ज़हन में हो
आज मुझसे कमाल फिर होगा
अबकी मैं भी ख़फा-ख़फा सा हूँ
अब ये रिश्ता बहाल फिर होगा
मुद्दतों बाद वो शहर में है
उसका आना बवाल फिर होगा
लौटकर जा रहा हूँ घर को मैं
जाने क्या-क्या सवाल फिर होगा
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ग़ज़ल-
वक्त बेवक्त रूठ जाते हैं
सौ जतन करते हैं मनाते हैं
वो कोई नज़्म थी अधूरी-सी
अब तलक हम उसे ही गाते हैं
लम्हा-लम्हा गया उदासी में
क़तरा-क़तरा वो याद आते हैं
दिल मेरा तोड़कर वो रख देगा
फिर भी हम उसको आज़माते हैं
बेवफ़ा हो ही वो नहीं सकता
बारहा खुद को ये बताते हैं
– अमित वागर्थ