ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
दुनिया को छोड़ पहले ख़ुद अंदर तलाश कर
ऊंचे से इस मकान में इक घर तलाश कर
हमवार फ़र्श छोड़ के पत्थर तलाश कर
चलना ही सीखना है तो ठोकर तलाश कर
ख़ुद को जला के देख जो सच की तलाश है
किसने तुझे कहा कि पयम्बर तलाश कर
हरियालियाँ निगल के उगलता है कंकरीट
इस वक़्त किस तरफ़ है वो अजगर, तलाश कर
तेरा सफ़र में साथ निभाए तमाम उम्र
ऐ ज़ीस्त कोई ऐसा भी रहबर तलाश कर
‘जय’ प्यास ही से प्यास का मिट सकता है वजूद
तू इसके वास्ते न समंदर तलाश कर
*******************************
ग़ज़ल-
ज़बां पे खार, बदन पर गुलाब पहने हुए
अजीब लोग मिले हैं नक़ाब पहने हुए
नज़र मिला के उसे आज देख सकता हूँ
लिबास कैसा है ये आफ़ताब पहने हुए
बचाया दामन-ए-ईमान इम्तिहान के वक़्त
सो लौट आये सिफ़र का अजाब पहने हुए
ये शब का आसमाँ! जैसे हो कोई शहज़ादा
“सितारे ओढ़े हुए, माहताब पहने हुए”
तुम्हारे ज़ुल्म ने कुछ ऐसा तार-तार किया
ज़माना गुज़रा इन आँखों को ख़्वाब पहने हुए
पड़ा ही रह गया परदा सवाल पर मेरे
वो आया सामने, मेरा जवाब पहने हुए
अना की टोपियाँ सबने उतार फेंकी थी ‘जय’
तू होता कैसे भला क़ामयाब, पहने हुए?
*******************************
ग़ज़ल-
ख़िज़ा की रुत में न कर ऐसे तू बहार की बात
हमारे दिल को चुभा करती है क़रार की बात
कोई क़दम भी उठाए तो कोई बात बने
ज़बां से यूँ तो सभी करते हैं सुधार की बात
उसी की जीत के चर्चे हैं अब जिधर देखो
कि जिसने हार न मानी थी सुन के हार की बात
न तुमने देखा, न मैंने, तो किसने देखा है?
वज़ूद उसका है सिर्फ एक ऐतबार की बात
बिछड़ के उनसे सुनाता हूँ मैं सभी को अब
“उन्ही की आँखों के क़िस्से, उन्ही के प्यार की बात”
ये शेरो-शाइरी की मेहरबानियाँ हैं जो
पहुँच रही है सरे-बज़्म ख़ाकसार की बात
*******************************
ग़ज़ल-
मुझको इस तरह देखता है क्या
मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या
बातें करता है पारसाई की
महकमे में नया-नया है क्या
आज बस्ती में कितनी रौनक है
कोई मुफ़लिस का घर जला है क्या
खोए-खोए हुए से रहते हो
प्यार तुमको भी हो गया है क्या
दिल मेरा गुमशुदा है मुद्दत से
फिर ये सीने में चुभ रहा है क्या
ढूँढ़ते रहते हैं ख़ुदा को सब
आज तक वो कभी मिला है क्या
लापता आजकल हैं ‘जय’ साहब
आपको कुछ अता-पता है क्या
– जयनित कुमार मेहता