ग़ज़ल
ग़ज़ल
महब्बत की बस्ती बसायेंगे फिर से
कि नफ़रत दिलों से मिटायेंगे फिर से
ईसाई, मुसलमान, हिन्दू न बनकर
हम इंसां को इंसां बनायेंगे फिर से
जो लाशों पे चढ़कर बड़ा बन रहा है
जगह उसको उसकी बतायेंगे फिर से
इरादे हैं नापाक तेरे संभल जा
कि औक़ात तुझको दिखायेंगे फिर से
नहीं मीरो-ग़ालिब के घर से तू सागर
ग़ज़ल जो तेरी गुनगुनायेंगे फिर से
– जावेद पठान सागर