ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
हर कोई खाए तरस ऐसी जगह
वार तुमने कर दिया ज़ख्मी जगह
ख़ूब ठंडक देंगे तुमको दोस्तो
तुम लगाओ पौधे ए.सी. की जगह
आज के बच्चे लिए फिरते हैं बस
फोन हाथों में किताबों की जगह
ज़िन्दगी में, नौकरी में, इश्क़ में
हम हुए नाक़ाम सारी ही जगह
लड़कियाँ ख़ुद इश्क़ हैं और इश्क़ पर
फूल बरसाओ तुम एसिड की जगह
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ग़ज़ल-
समझना हो किसी की जिंदगी को
समझना उसके ग़म को और ख़ुशी को
नहीं फ़ुरसत समय तक देखने की
कलाई पर वो क्यों बाँधे घड़ी को
बिताये साथ मेरे एक दो पल
नहीं इतनी भी फ़ुरसत ज़िन्दगी को
मैं शायर हूँ गुलामी कैसे करता
तभी तो छोड़ आया नौकरी को
पिता के फैसले थोपे गये जब
किया महसूस दादा की कमी को
मुहब्बत पूछता है कौन ‘सागर’
यहाँ सब पूछते हैं नौकरी को
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ग़ज़ल-
लगे हैं साथ मोहन राधिका हो
अरे ये तुम तो सागर-बंदिता हो
ख़ुदा, भगवान, ईसा या हो फिर बुद्ध
है कोई जो सभी को पूजता हो
अगर है लड़कियों पर बंदिशें कुछ
तो फिर लड़को का भी तय दायरा हो
नज़र कीड़े-मकोड़े आएँगे हम
मकां साहब का जब बहुमंज़िला हो
मुहब्बत में बिछड़ते सब हैं ‘सागर’
अगर मिल जाएँ हम तो कुछ नया हो
– जावेद पठान सागर