ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
आपस में अगर अपनी मुहब्बत बनी रहे
इस खौफ़नाक दौर में हिम्मत बनी रहे
साजिश के मौसमों में, धमाकों के शहर में
अम्नो-अमां की कोई तो सूरत बनी रहे
क्या हर्ज़ है सड़क को घुमाकर निकाल लें
गर लोग चाहते हैं, इमारत बनी रहे
वो आख़िरी बयान में समझा गया हमें
जैसे भी हो, ये प्यार की दौलत बनी रहे
वो शख्स़ जो लोगों के दिलों का है बादशाह
उसके ख़िलाफ़ क्यों ये हुकूमत बनी रहे
पुरखों ने नेकियों के लगाए हैं जो दरख़्त
ये हैं, तभी तो राह में राहत बनी रहे
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ग़ज़ल-
वेदना को शब्द के परिधान पहनाने तो दो
ज़िन्दगी को गीत में ढलकर ज़रा आने तो दो
वक़्त की ठण्डक से शायद जम गयी मन की नदी
देखना बदलेंगे मंज़र, धूप गर्माने तो दो
खोज ही लेंगे नया आकाश ये नन्हे परिन्द
इन परिन्दों को ज़रा तुम पंख फैलाने तो दो
ऐ अंधेरों! देख लेंगे हम तुम्हें भी कल सुबह
सूर्य को अपने सफ़र से लौटकर आने तो दो
मुद्दतों से सोच अपनी बंद कमरे में है क़ैद
खिड़कियाँ खोलो, यहाँ ताज़ा हवा आने तो दो
ना-समझ है वक़्त लेकिन ये बुरा बिल्कुल नहीं
मान जाएगा, उसे इक बार समझाने तो दो
कब तलक डरते रहें हम, ये न हो, फिर वो न हो
जो भी होना है उसे इक बार हो जाने तो दो
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ग़ज़ल-
झुलसती धूप, थकते पाँव, मीलों तक नहीं पानी
बताओ तो कहाँ धोऊँ सफ़र की ये परेशानी
इधर भागूँ, उधर भागूँ, जहाँ जाऊँ, वहीं पाऊँ
परेशानी परेशानी परेशानी परेशानी
बड़ा सुंदर-सा मेला है, मगर उलझन मेरी ये है
नज़र में है किसी खोये हुए बच्चे की हैरानी
यहाँ मेरी लड़ाई सिर्फ इतनी रह गयी यारो
गले के बस ज़रा नीचे रुका है बाढ़ का पानी
तबीयत आजकल मेरी यहाँ अच्छी नहीं रहती
विषैला हो गया शायद यहाँ का भी हवा-पानी
समय के ज़ंग-खाए पेंच दाँतों से नहीं खुलते
समझ भी लो मेरे यारो बग़ावत के नए मानी
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ग़ज़ल-
ये न पूछो, है गोलमाल कहाँ
ये बताओ, है कोतवाल कहाँ
लूटकर ले गए घने बादल
मोतियों से भरा वो थाल कहाँ
ख़ुद से मिलना तो हो नहीं पाता
पूछता तेरे हालचाल कहाँ
आप चिपके हैं यहाँ टी.वी. से
फिर रहे घर के नौनिहाल कहाँ
इक हिरन हिंसकों के रेहड़ में
रोज़ बच पाए बाल-बाल कहाँ
आज की सभ्य-शिष्ट कविता में
कोई भी जेनुइन सवाल कहाँ
अब दिलों में न वैसी आँच रही
सोच में भी वही उबाल कहाँ
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ग़ज़ल-
क्या हुआ क्यों बाग़ के सारे शजर लड़ने लगे
आँधियाँ कैसी हैं जो ये घर से घर लड़ने लगे
एक ही मंज़िल है उनकी, एक ही है रास्ता
क्या सबब फिर हमसफ़र से हमसफ़र लड़ने लगे
एक तो मौसम की साजिश मेरे घर बढती गयी
फिर हवा यूँ तेज़ आई, बामो-दर लड़ने लगे
मेरा साया तेरे साये से बड़ा होगा इधर
बाग़ में इस बात पर दो गुलमुहर लड़ने लगे
एक ही ईश्वर अगर है तो वो है सबके समीप
बन्दगी कैसी हो, बस इस बात पर लड़ने लगे
– हरेराम समीप