ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जो कभी किसी ने नहीं पढ़ी, मैं दबी वो बंद किताब हूँ
मैं हूँ हुस्ने-पर्दा नशीन-सी, दिले-आरसी का हिजाब हूँ
मैं बहार का कोई फूल हूँ, किसी कोने में हूँ खिली हुई
मैं चराग़ हूँ किसी राह का, किसी दर का सूखा गुलाब हूँ
मेरी ज़ीस्त सहरा की रेत-सी, मेरा जिस्म जैसे कि हो ख़िज़ाँ
मैं थमी हुई कोई झील हूँ, कहाँ बहता कोई चनाब हूँ
न ही जुस्तुजू में किसी की हूँ, न रही किसी की हूँ आरजू
न सुकून हूँ न हयात हूँ, न नज़र का चढ़ता शबाब हूँ
मैं दुआ नहीं, न ही हूँ दवा, न ही ज़िदगी की हूँ इक सबा
मैं रगों में फिरती हुई-सी बस, कोई टीस हूँ या अज़ाब हूँ
मैं ख़मोशियों का हूँ सिलसिला, नहीं गुफ़्तगू की हूँ दास्तां
मेरे जज़्ब का नहीं हमनवां, न किसी के दिल का सुराब हूँ
मुझे हिज़्र से तू निकाल दे, मुझे आके फिर से सँभाल ले
वही ‘नेह’ हूँ दिले-शाद हूँ, तेरे इश्क़ की ही शराब हूँ
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ग़ज़ल-
बड़ी शिद्दत से हाथों को दुआ में जब उठाते हैं
शिफ़ा की अर्ज़ियाँ ख़ुद की नहीं सबकी लगाते हैं
चलो माना समुन्दर है बहुत खारा, नदी मीठी
मगर जीने में दोनों ही ज़रूरी स्वाद लाते हैं
जिन्हें रहना है ख़ुश वो लोग तो हर हाल में रहते
दुखों को ढाँककर मुस्कान से चेहरे खिलाते हैं
जहाँ पर उम्र के हिस्से में ख़ुशियों का बसेरा था
उसी बचपन की तस्वीरों से हम तुझको मिलाते हैं
खफ़ा होते हैं हम और रूठ भी जाते हैं अक्सर ही
मुहब्बत से अगर कोई मनाये मान जाते हैं
बड़े नादां परिंदे हैं चले हैं लीक से हटकर
अभी इश्क़-ओ-वफ़ा के गीत ही हर वक्त गाते हैं
नदी हूँ ‘नेह’ की,रुकना कहाँ फ़ितरत में है मेरी
दिलों के बीच बहती हूँ नयन खुद ही बताते हैं
– गीता विश्वकर्मा नेह