ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
लग रही है खिलखिलाहट भी अलग
तिश्नगी की कसमसाहट भी अलग
दर्द से तड़पी थी कितनी रात में
सुब्ह देखी मुस्कुराहट भी अलग
रिश्तेदारों से पड़ोसी हैं भले
दिल में उनकी खनखनाहट भी अलग
क्या ग़ज़ब जादू मुहब्बत ने किया
जिस्म की ये झनझनाहट भी अलग
सब्ज़ पत्ते सुर्ख गुल काँटे-सा है
ज़िन्दगी की गमगमाहट भी अलग
‘नेह’ को भाने लगी दीवानगी
इश्क़ की है जगमगाहट भी अलग
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ग़ज़ल-
दिल से दिल का राबता होने लगा
खुल गया मन मशविरा होने लगा
मुद्दतों के बाद हँसकर बात की
उनको मुझसे हौंसला होने लगा
उनकी नज़रों से मिली मेरी नज़र
इश्क़ से अब आशना होने लगा
रूठना, शक, तंज़ करना हाय उफ्
प्यार में यह सिलसिला होने लगा
कह दिया ऐसा भी क्या हमने उन्हें
रंग चेह्रे का हवा होने लगा
हो बहुत ही ख़ूबसूरत ज़िन्दगी
और जीने का नशा होने लगा
‘नेह’ से ना-गुफ़्तनी बातें न कर
फिर न कहना ग़मज़दा होने लगा
– गीता विश्वकर्मा नेह