ग़ज़ल
ग़ज़ल
तुझे जानूँ, तुझे समझूँ, तुझे कुछ यूँ निखारुं मैं
भले बिखरूँ मैं कितना ही मगर तुझको संवारूँ मैं
करिश्मा है, इबादत है, नशा है या कि जादू है
मुहब्बत तू बता किस नाम से तुझको पुकारूं मैं?
अपरिचित हूँ नहीं मालूम तू है दोस्त या दुश्मन
मगर फिर भी सभी ग़म औ ख़ुशी तुझ पर ही वारूँ मैं
न मुझको जिन्दगी प्यारी, न मुझको मौत आती है
बता दे हिज़्र के दिन रात अब कैसे गुजारूं मैं?
कभी राधा, कभी उर्मिल, कभी शिबरी, कभी मीरा,
मुहब्बत तेरी खातिर जाने कितने रूप धारूँ मैं
भले मैं ‘गीत’ लिक्खूँ या ग़ज़ल कह दूँ, लिखूं कविता
मगर सच है यही, हर लफ्ज़ में तुझको पुकारूँ मैं
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ग़ज़ल
अगर मैं जान भी दे दूँ मुहब्बत मिल नहीं सकती
सिवा अश्कों के कोई दिल की कीमत मिल नहीं सकती
तेरा गुस्सा, तेरी नफरत, तेरा यूँ रूठ कर जाना
यही किस्मत है अब कुछ और किस्मत मिल नहीं सकती
दुखी मत हो मेरे दिल तू सज़ाओं से न डर जाना
मुहब्बत जुर्म ही ऐसा है, मुहलत मिल नहीं सकती
दफ़न रहने दो ख्वाहिश फूल-सी केवल किताबों में
कि सूखे फूल को फिर से तो ज़ीनत मिल नहीं सकती
जला लो चाहे जितने दीप उम्मीदों के अब लेकिन
मेरे टूटे हुए दिल को तो हिम्मत मिल नहीं सकती
न जाने क्यूँ वफ़ा की ख्वाहिशें तुमसे लगा बैठी
कि अब खैरात में तो ऐसी दौलत मिल नहीं सकती
– गीता वर्मा ‘गीत’