ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
मैं सागर में समाना चाहती हूँ
नदी की राह जाना चाहती हूँ
ख़ुदाया मुझको ऐसी बेख़ुदी दे
ख़ुदी मे डूब जाना चाहती हूँ
छुपा कर ज़लज़ले ख़ामोश रहता
समंदर-सा फ़साना चाहती हूँ
करूँ तालीम से रौशन जहां को
ज़िहालत को मिटाना चाहती हूँ
हक़ीक़त हो गयी ज़ाहिर नज़र से
नहीं कुछ भी छुपाना चाहती हूँ
भरोसा ‘गीत’ का तुझ है ज़्यादा
यकीं तुझको दिलाना चाहती हूँ
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ग़ज़ल-
ख़्वाब क्या-क्या दिखा गयीं आँखें
सोयी ख़ुशियाँ जगा गयीं आँखें
ख़ार चुभने न पाये दिलबर को
नर्म पलकें बिछा गयीं आँखें
वो तसव्वुर में रुक गये पल भर
अपना सब कुछ लुटा गयीं आँखें
देखती राह उनके आने की
कितने गौहर लुटा गयीं आँखें
देख कर उनको अब किधर देखें
लाख पहरे बिठा गयीं आँखें
उनसे इक बार क्या मिली नज़रें
रोग दिल को लगा गयीं आँखें
राज़ छुपते नहीं हैं नज़रों से
‘गीत’ क्या-क्या बता गयीं आँखें
– गीता शुक्ला गीत