ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
न सनम है न है ख़ुदा हासिल
सोचता हूँ हुआ है क्या हासिल
उसने कर के पुराना फेंक दिया
मैं हुआ था जिसे नया हासिल
ऐश ट्रे, ग़ज़लें और ख़ाली कप
उम्र का बस यही रहा हासिल
मैं अगर संग हूँ तराश मुझे
तुझको हो जाएगा ख़ुदा हासिल
रात का जिस्म मिल भी सकता है
पहले कर कोई रतजगा हासिल
अपना चेहरा उतार फेंका तो
जाने क्या-क्या मुझे हुआ हासिल
उम्र भर था तलाश में जिसकी
सिर्फ़ वो ही न हो सका हासिल
उसको ‘फ़ानी’ बना के मानेगा
गर हुआ उसको दूसरा हासिल
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ग़ज़ल-
मुद्दतों से रो रही थी तोड़ दी
दिल में जो मूरत बसी थी तोड़ दी
ख़ामुशी दोनों की जब टूटी नहीं
बीच में जो इक कड़ी थी तोड़ दी
उसने अपने पत्थरों के लफ़्ज़ से
मुझ पे जो शीशागरी थी तोड़ दी
रूक न पाया वक़्त तो झुँझला गया
वो जो इक मुर्दा घड़ी थी तोड़ दी
इक इमारत मेरे दिल के दश्त में
ख़ुद ब ख़ुद बनने लगी थी तोड़ दी
एक गुड़िया मुझ में काफ़ी देर से
तोड़ दो रटने लगी थी तोड़ दी
‘फ़ानी’ उसके लौटने की आस की
उम्र पूरी हो गई थी तोड़ दी
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ग़ज़ल-
फिर वही गोशानशीनी और मैं
फिर वही रातें कमीनी और मैं
फिर वो तेरा चाँद और परियों का ज़िक्र
फिर मेरी बातें ज़मीनी और मैं
फिर भटक के आ रहा हूँ दश्त से
फिर वही दुनिया मशीनी और मैं
फिर रहे हैं डाल के हाथों में हाथ
फिर से दुश्मन आस्तीनी और मैं
फिर मिलेंगे काग़जों पे साथ साथ
फिर तुम्हारी नुक़्ताचीनी और मैं
फिर हवा है ‘फ़ानी’ घर में अजनबी
फिर ये उसकी बे-यक़ीनी और मैं
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ग़ज़ल-
कोहसारों के ऊपर मिट्टी देखी है
परबत की यूँ लाज उतरती देखी है
जाने उसकी कौनसी हसरत है बाक़ी
ख़ुद में अक्सर रूह भटकती देखी है
प्यास मेरी रहती है सहमी-सहमी सी
ख़ुद में जब से नदी उतरती देखी है
वक़्त के सूरज ने शिद्दत दिखलाई जो
हमने तेरी याद पिघलती देखी है
रूप-रंग में जो भी दिलकश है ‘फ़ानी’
काँच में अक्सर वो ही मछली देखी है
– फ़ानी जोधपुरी