ग़ज़ल
ग़ज़ल-
हमारी छत पे जो आई तो बेमज़ा आई
ये धूप शिद्दतें अपनी कहाँ लुटा आई
सुकून मिलता था आवाज़ से तेरी लेकिन
हमारे हिस्से में वो भी ज़रा-ज़रा आई
संजो सहा था मैं अल्बम में बिखरी यादों को
न जाने कौनसी तस्वीर से सदा आई
उन्हीं के नीचे कई बस्तियाँ दबी होंगी
निशाँ जो रेत पे पागल हवा बना आई
ये मेरे घर के बराबर से जाती पाजी सड़क
तमाम शहर को मेरा पता बता आई
सियाही पोत गयी पहले प्यार पर ‘फ़ानी’
किसी के नाम की हाथों पे जब हिना आई
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ग़ज़ल-
दिलों में क़ुफ़्ल डाला जा रहा है
नया मुद्दा उछाला जा रहा है
हम ही थे शहर की बुनियाद लेकिन
हमें घर से निकाला जा रहा है
अगर हैं दोनों पहलू एक जैसे
तो क्यों सिक्का उछाला जा रहा है
तलातुम मछलियों में क्यों बपा है
समन्दर क्या खंगाला जा रहा है
नई नस्लों करो गुफ़्तार तुम ही
हमें बरसों से टाला जा रहा है
मुझे हैरत है ‘फ़ानी’ मेरा क़ातिल
मेरे टुकड़ों पे पाला जा रहा है
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ग़ज़ल-
ताक़त से मुझको मार के पत्थर ज़मीन से
वो चुन रहा था बिखरे मेरे पर ज़मीन से
सैय्याद लेने आये मुझे इतनी देर में
जी चाहता है रोऊँ लिपटकर ज़मीन से
अल्लाह मेरी छोटी-सी बस्ती की ख़ैर हो
उठने लगे हैं रेत के लश्कर ज़मीन से
इक अश्क जज़्ब कर लिया सेहरा की रेत ने
अब क्या करें तकाज़ा पलटकर ज़मीन से
सूरज के रुख़ पे धुप का क्या नूर आ गया
पानी की उठ रही है जो चादर ज़मीन से
‘फ़ानी’ से ग़ज़लें इश्क़ की मुमकिन नहीं कभी
उम्मीद-ए-गुल न पालिये बंजर ज़मीन से
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ग़ज़ल-
मुद्दत से ढूँढता हूँ कोई हमज़बाँ मिले
पर अब्र-ए-आरज़ू को कहाँ आसमाँ मिले
ख़ुद में उतर के खुद से अगर दूर जा सकूं
मुमकिन है अपने प्यार कि तब दास्ताँ मिले
करना सलाम पेश उसे मेरी प्यास का
रस्ते में गर तुम्हें कोई दरिया रवाँ मिले
वीरान मेरी छत न इन्हें कर सकी तलाश
तुम ही बताओ तुमको परिंदे कहाँ मिले
अब जा रहा हूँ चाँद कि किरने खंगालने
मैं जिसको ढूँढता हूँ वो शायद वहाँ मिले
जो फूल घुटनों चलते हुए छोड़ आया था
मुमकिन है वापसी पे वो ‘फ़ानी’ जवाँ मिले
– फ़ानी जोधपुरी