ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमां पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबां पहाड़
थी मौसमों की मार तो बेशक बड़ी शदीद
अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जां पहाड़
सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बां पहाड़
पत्थर-सलेट में लुटा के अस्थियाँ तमाम
मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जां पहाड़
नदियों, सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयां पहाड़
वो तो रहेगा खोद के उनकी जड़ें तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबां पहाड़
सीनों से इनके बिजलियाँ, सड़कें गुज़र गईं
वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़
कचरा, कबाड़, प्लास्टिक उपहार में मिले
सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बां पहाड़
*************************
ग़ज़ल-
ख़ुद भले ही जी बेशक त्रासदी पहाड़ों ने
बस्तियों को दे दी है हर ख़ुशी पहाड़ों ने
ख़ुद तो जी हमेशा ही तिश्नगी पहाड़ों ने
सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने
आदमी को बख़्शी है ज़िन्दगी पहाड़ों ने
आदमी से पाई है बेबसी पहाड़ों ने
हर क़दम निभाई है दोस्ती पहाड़ों ने
हर क़दम पे पाई है बेरुख़ी पहाड़ों ने
मौसमों से टकराकर हर क़दम पे दी सबके
जीने के इरादों को पुख़्तगी पहाड़ों ने
देख हौसला इनका और शक्ति सहने की
टूटकर बिखर के भी उफ़ न की पहाड़ों ने
नीलकंठ शैली में विष स्वयं पिये सारे
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने
रोक रास्ता उनका हाल जब कभी पूछा
बादलों को दे दी है नग़्मगी पहाड़ों ने
लुट-लुटा के हँसने का योगियों के दर्शन-सा
हर पयाम भेजा है दायिमी पहाड़ों ने
सबको देते आए हैं नेमतें अज़ल से ये
‘द्विज’ को भी सिखाई है शायरी पहाड़ों ने
पयाम= संदेश; दायिमी= स्थाई; अज़ल=सृष्टि का प्रारंभ
– द्विजेन्द्र द्विज