ग़ज़ल
ग़ज़ल
है तमन्ना अगर उजालों की
तो हिफ़ाज़त करो चराग़ों की
भूल मत जाना तुम ज़मीं अपनी
बात करते हुए सितारों की
ढूंढते हो दिलों में क्यूँ इसको
है वफ़ा चीज़ अब फ़सानों की
पास दरिया है प्यास फिर भी है
बेबसी देखिये किनारों की
आरियां भी चलाये पेड़ों पर
और उम्मीद भी बहारों की
दूर से जो लगे समन्दर सा
अस्ल में है डगर सराबों की
कुछ जले या बुझे हरिक सूरत
होगी मौजूदगी हवाओं की
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ग़ज़ल
आग में तपा नहीं
सोना ये खरा नहीं
आदमी है आदमी
आदमी ख़ुदा नहीं
सुब्ह कट गया वो सर
रात जो झुका नहीं
ज़ख़्म देने वाले को
दर्द का पता नहीं
प्यार जिस से था हमें
प्यार से मिला नहीं
शक्ल से मैं हूँ बुरा
दिल से मैं बुरा नहीं
सरफ़िरा है ये जहाँ
सरफ़िरा ‘ज़िया’ नहीं
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ग़ज़ल
कोई सब्ज़ा कोई साया दूर तक
कुछ निगाहों में न आया दूर तक
याद आया क़तरा-क़तरा फिर बहुत
रेत का दरिया जो पाया दूर तक
दो क़दम की हमसफ़र थी हर ख़ुशी
साथ पर ग़म ने निभाया दूर तक
आरज़ू, उम्मीद, उल्फ़त का नशा
मेरी सांसें खीच लाया दूर तक
ज़िन्दगी की राह में हर मोड़ पर
जाल ख़्वाहिश ने बिछाया दूर तक
हाल-ए-दिल किससे कहें कोई नहीं
ऐ ‘ज़िया’ अपना पराया दूर तक
– सुभाष पाठक ज़िया