ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
हाथ अपनी भूल पर कुछ तुम मलो, कुछ हम मलें
हर तपन मिट जायेगी कुछ तुम ढलो, कुछ हम ढलें
बेवजह बनकर चटानें क्या हमें हासिल हुआ
बर्फ़ की मानिंद अब कुछ तुम गलो, कुछ हम गलें
नफ़रतों के ये अँधेरे ख़ुद-ब-ख़ुद मिट जाएँगे
मोम धागे की तरह कुछ तुम जलो, कुछ हम जलें
वो जो होली-ईद पर मिल बैठ के चखते थे हम
चटपटे वो ज़ायके कुछ तुम तलो, कुछ हम तलें
मानकर बाज़ार अब भी छल रहे हैं जो हमें
क्यों न उन छलियों को अब कुछ तुम छलो, कुछ हम छलें
जो विरासत में मिली वो राह ख़ुद गुमराह थी
अब तो नूतन राह पर कुछ तुम चलो, कुछ हम चलें
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ग़ज़ल-
तू इन बूढ़े दरख्तों की हवाएँ साथ रख लेना
सफ़र में काम आएँगी दुआएँ साथ रख लेना
हँसी बच्चों की, माँ का प्यार और मुस्कान बीबी की
तू घर से जब चले तो ये दवाएँ साथ रख लेना
सफ़र कितना भी मुश्किल हो वो फिर मुश्किल नहीं होगा
तू थोड़े हौसले बस दाएँ-बाएँ साथ रख लेना
बिछड़ता देखकर तुझको जो घिरकर भी नहीं बरसीं
तू उन कजरारी आँखों की घटाएँ साथ रख लेना
कहीं भी तू रहे तेरे हमेशा काम आएँगी
तू थोड़ी नेकियाँ, थोड़ी वफ़ाएँ साथ रख लेना
ख़ताएँ दूसरों की जब कभी तू ढूँढने निकले
तू सबसे पेशकर अपनी खताएँ साथ रख लेना
मैं जब घर से चला, काँटो घिरे कुछ फूल यूँ बोले
ग़मों में मुस्कराने की अदाएँ साथ रख लेना
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ग़ज़ल-
हर आदमी है चेहरे पे चेहरा लिए हुए
किस किससे दूर भागिए किस किसको झेलिये
बारूद की ये जंग, लड़ाई ये मौत की
बाहर के खेल हैं इन्हें घर में न खेलिए
रह रह के सोचते हैं पिटारी में बन्द साँप
देखें कहाँ नचाते हैं अब कालबेलिये
कैसे कोई परिन्द बसेरा ले इस जगह
बैठे हैं हर दरख़्त पे छुप कर बहेलिये
हर रात जा रही है नए ख़्वाब छोड़कर
हर दिन निकल रहा है नए हादसे लिए
इस हाथ में त्रिशूल है उस हाथ में छुरा
हर हाथ है उतारू किसी क़त्ल के लिए
वो गीत ज़िन्दगी का जिसे गा रहे थे तुम
सब लोग मुंतज़िर हैं उसी गीत के लिये
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ग़ज़ल-
पूरी हिम्मत के साथ बोलेंगे
जो सही है वो बात बोलेंगे
साहिबो! हम क़लम के बेटे हैं
कैसे हम दिन को रात बोलेंगे
पेड़ के पास आँधियाँ रख दो
पेड़ के पात पात बोलेंगे
‘ताज’ को मेरी नज़र से देखो
जो कटे थे वो हाथ बोलेंगे
उनको कुर्सी पे बैठने तो दो
वो भी फिर वाहियात बोलेंगे
मुल्क के हाल-चाल कैसे हैं
ख़ुद-ब-ख़ुद वाक़यात बोलेंगे
शब्द को नाप तोलकर कहना
अर्थ भी उसके साथ बोलेंगे
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ग़ज़ल-
कल न बदला वो आज बदलेगा
वक़्त अपना मिज़ाज बदलेगा
आदमी की यहाँ तलाश करो
आदमी ही समाज बदलेगा
फूल माला बने रहे जो तुम
कैसे काँटों का ताज बदलेगा
वो ही अफ़सर है, वो ही चपरासी
कैसे सब कामकाज बदलेगा
वो जो ख़ुद को बदल नहीं सकता
वो भला क्या रिवाज बदलेगा
रोग बढ़ता ही जा रहा है अब
जाने वो कब इलाज बदलेगा
– डॉ. उर्मिलेश