ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
साथ तेरे बैठ कर इक गीत गाना चाहता हूँ
और तेरी राह में ख़ुद को बिछाना चाहता हूँ
बैठ जाऊँ कर इशारा पास तेरे आज मैं फिर
दरमियां तेरे मेरे क्या ये बताना चाहता हूँ
यार मत इंकार करना कुछ समय की बात है बस
पास तेरे बैठने का इक बहाना चाहता हूँ
रू-ब-रू तुझसे कभी फिर हो सकूँगा कि नहीं मैं
ज़िंदगी बोझिल बहुत है गुनगुनाना चाहता हूँ
तोड़ने से भी न टूटे डोर वो बनना मुझे है
‘शूर’ वो मजबूत मैं रिश्ता बनाना चाहता हूँ
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ग़ज़ल-
तेरा यार जब मैं हुनर देखता हूँ
तुझे देखता हूँ जिधर देखता हूँ
ख़ुदा ने तुझे तो बनाया जुदा है
जुदा सबसे तेरा जिगर देखता हूँ
भरा है तेरा नेकियों से ख़ुदा घर
मैं ख़ुशहाल तेरा शजर देखता हूँ
भले ज़ुल्म ढाये सितमगर ज़माना
नहीं करते शिकवा अधर देखता हूँ
गले से लगाना मैं चाहूँ उसी पल
तुझे ‘शूर’ जब भर नजर देखता हूँ
– डॉ. सूर्य नारायण शूर