ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
बदन की सर्द हरारत को मौत कहते हैं
कि साँस लेने से फ़ुर्सत को मौत कहते हैं
जो ज़िन्दगी को समझते हैं ख़्वाब का मेला
वो ज़िन्दगी की हक़ीक़त को मौत कहते हैं
दिलो-दिमाग़ में मरने का ख़ौफ़ रहता हो
हम ऐसे जीने की आदत को मौत कहते हैं
वतनपरस्तों से निस्बत है ज़िन्दगी की मिसाल
वतनफ़रोशों की सुहबत को मौत कहते हैं
ठहर के जिसके तले भूल जाएँ हम मंज़िल
सुकून-चैन की उस छत को मौत कहते हैं
मुहब्बतों की इबादत है ज़िन्दगी लेकिन
मुहब्बतों की तिजारत को मौत कहते हैं
ये रात होते ही सो जाती है बिलानागा
हाँ, ज़िन्दगी की इसी लत को मौत कहते हैं
झुके जो सर किसी कमज़र्फ़ के ठिकाने पर
हम ऐसी सख़्त ज़रूरत को मौत कहते हैं
वतन के नाम शहादत है ज़िन्दगी ऐ ‘ऋषी’
शहादतों पे सियासत को मौत कहते हैं
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ग़ज़ल-
कर्ज़ों के ग़म में ख़ुशियों के संबल तितर-बितर
आँगन उदास, बहुओं की पायल तितर-बितर
मरुभूमियाँ निगल गयीं सरसब्ज़ खेतियाँ
आबादियों ने कर दिये जंगल तितर-बितर
मतलब की आँधियाँ चलीं ख़ुशियों के गाँव में
बाबा की पगड़ी, अम्मा का आँचल तितर-बितर
अधिकार का प्रयोग हो लेकिन सँभालकर
कर देता दाने-दाने को मूसल तितर-बितर
बारिश का साथ आँसुओं ने रातभर दिया
बिरहन का इसलिए हुआ काजल तितर-बितर
जुटती रहेगी ख़्वाहिशों की भीड़ कब तलक
कर डाले इसने चैन के सब पल तितर-बितर
आसार बारिशों के बहुत थे ‘ऋषी’ मगर
चंचल हवा ने कर दिये बादल तितर-बितर
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ग़ज़ल-
लहू से बाग़बाँ ने गर इसे सींचा नहीं होता
चमन में एक भी गुल, एक भी बूटा नहीं होता
अगर होता नहीं विश्वास मुझको वह मना लेगी
मैं अपनी ज़िन्दगी से आज तक रूठा नहीं होता
न आया क़त्ल करने बन गया इंसान तू शायद
अरे ज़ालिम! तेरा वादा कभी झूठा नहीं होता
मुकद्दर में था लुटना या मेरी फ़ितरत ही लुटना है
नहीं तो मुझको अपनों ने ही यों लूटा नहीं होता
उबल कुछ तो रहा होगा तेरे दिल में मुझे लेकर
अकारण मुझपे यूँ ग़ुस्सा तेरा फूटा नहीं होता
मैं हूँ दर्पण, तू है पत्थर अगर अहसास भी होता
भले मैं टूटता पर इस तरह टूटा नहीं होता
पसीना आ गया होगा, पकड़ ढीली हुई होगी
वगरना मुझसे दामन सब्र का छूटा नहीं होता
बुढापे तक समझ पाता नहीं, है ज़िन्दगी क्या शै
मुझे बचपन में गर हालात ने कूटा नहीं होता
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ग़ज़ल-
टूटता मुश्किल से है सच्ची कहानी का भरम
आख़िरी दम तक उसे था ज़िन्दगानी का भरम
यूँ है बढ़ती उम्र में क़ायम जवानी का भरम
तपते रेगिस्तान में हो जैसे पानी का भरम
आज तक हम भी तेरे झूठे फ़सानों में हैं गुम
और अब तक है तुझे भी हक़बयानी का भरम
होंठ हँसने ही लगे थे ग़म छुपाने के लिए
तोड़ डाला आँसुओं ने शादमानी का भरम
हुकमरानी तुमको आए या न आए हुक्मरान
चाहिए रहना मगर, हाँ हुक्मरानी का भरम
सच तेरी बातों में कितना है हमें मालूम था
जी गये ख़ुश होके तेरी ख़ुशबयानी का भरम
ख़ुद के अन्दर से ही आती थी कोई आवाज़-सी
पर हमें होता रहा आकाशवाणी का भरम
चार गुल बचपन में हमने क्या खिलाए ऐ ‘ऋषी’
आज तक पाले हुए हैं बाग़बानी का भरम
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ग़ज़ल-
बरसात में टपकना वो छत का याद आए
बचपन का वह ज़माना कैसे कोई भुलाए
धरती की प्यास हरने बादल जो घिरके आए
कोंपल नई उगी है जीवन ने गीत गाए
काँधे हवा के चढ़कर, मौसम के दिल पे छाए
बादल हैं या किसी की ज़ुल्फ़ों के हैं ये साए
करते हैं तेरा स्वागत, ऐ बारिशों की रानी
कुछ ग़म नहीं पुराना गर घाव खुल भी जाए
आएगी बाढ़, हमने तालाब पाट डाले
बारिश का पानी आख़िर सर किस जगह छिपाए
बिरहन के आँसुओं-सी बारिश कभी-कभी तो
रुकती न एक पल को, दिल चाहे डूब जाए
मजबूर कोई होगा जो झूमता न होगा
रिमझिम की ताल पर जब बरसात गुनगुनाए
बरसात ले के आई है नेमतें ग़ज़ब की
आमों से बहले कोई जामुन से दिल लगाए
बादल के अश्क दिल के पन्ने न गीले कर दें
यादों की पुस्तकें झट अन्दर सहेज लाए
आती है नींद गहरी अक्सर ‘ऋषी’ को उस रात
बूँदों के साज़ पर जब बरसात गुनगुनाए
– डॉ. ऋषिपाल धीमान ऋषि