ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कहानी से भले बाहर रहे हैं
मगर हम ही निशाने पर रहे हैं
कभी थे प्यार में पागल बिछड़कर
समझदारी की बातें कर रहे हैं
तुम्हें पूजा है देवों-सा ऋचाएँ
तुम्हारे नाम के आखर रहे हैं
रखेंगे पाँव भी कब तक संभलकर
यक़ीं करना सहल है, कर रहे हैं
अदाएँ हैं ज़मीं की कुछ नवेली
हसीं मौसम इशारे कर रहे हैं
बहुत मुमकिन है सोता फूट जाए
कई बरसों से हम पत्थर रहे हैं
‘निधि’ गुल आज मुरझाये हैं जो कल
यही तो ख़ुशबुओं के घर रहे हैं
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ग़ज़ल-
बच सकता है, शोर मचा
गर सच्चा है, शोर मचा
बहरों की इस नगरी में
सच कहता है, शोर मचा
जागेंगे तब पूछेंगे
क्या क़िस्सा है, शोर मचा
सबकी नज़रों में रहना
एक कला है, शोर मचा
जिसकी लाठी उसकी भैंस
बस ऐसा है, शोर मचा
पत्थर आँखों से लावा
सा फूटा है, शोर मचा
नींव हिली है महलों की
अब लगता है, शोर मचा
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ग़ज़ल-
सोचिए रंगत ज़मीं की आसमानी हो अगर
चाँद सूरज के सफ़र की इक निशानी हो अगर
मुश्किलों के दौर अपने आप ही कट जाएँगे
एक-दूजे के लिए आँखों में पानी हो अगर
चीख़ती गलियों, धमाकों से भरे माहौल में
पेड़, झरने, फूल, परियों की कहानी हो अगर
या ख़ुदा तुर्बत को मेरी कर अता उसकी गली
और उस पर मौत मेरी जाविदानी हो अगर
फ़ख्र से सर को उठा रखना हो तो ये सीखिए
कब, कहाँ, कितनी झुके गर्दन झुकानी हो अगर
– डॉ. निधि सिंह