ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
मेरी मेहनत पे जीना चाहता है
वो मेरा ख़ून पीना चाहता है
संवरना है मुझे भी आईने में
किसी का दिल हसीना चाहता है
ग़रीबी इतनी अंदर आ गई है
फटा कपड़ा भी सीना चाहता है
वही जिनसे हमारी दोस्ती थी
हमारा ख़ून पीना चाहता है
बड़ी उल्फ़त से माँ को रख रहा है
वो घर में ही मदीना चाहता है
भला बोलो बुराई क्या है इसमें
जो कुछ पैसा महीना चाहता है
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ग़ज़ल-
शाम में बदलियाँ भी रहती हैं
कुछ न कुछ तल्खियाँ भी रहती हैं
बेतकल्लुफ़ न घर से निकलो तुम
छत पे कुछ लड़कियाँ भी रहती हैं
यों न झटके से पास लाओ मुझे
कान में बालियाँ भी रहती हैं
कितनी बातों को तुम छुपाओगे
हाथ में चूड़ियाँ भी रहती हैं
बैठ जाता हूँ बात सच लिखने
हाँ, मेरी ग़लतियाँ भी रहती हैं
हमने सोचा न मारकर दुल्हन
घर में कुछ बेटियाँ भी रहती हैं
– डॉ. जियाउर रहमान