ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
बाप का डर समझ में आता है
बाप बनकर समझ में आता है
कल जो आता नहीं था भेजे में
अब वो अक्सर समझ में आता है
सात चक्कर के बाद ही जग का
सारा चक्कर समझ में आता है
ठीक से मोल घर के खाने का
घर के बाहर समझ में आता है
कितनी मुश्किल से आता है पैसा
ख़ुद कमाकर समझ में आता है
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ग़ज़ल-
आप-हम बार-बार मिलते हैं
इसका मतलब विचार मिलते हैं
अब तो मज़हब फ़क़त दिखावा है
अब कहाँ दीनदार मिलते हैं
सौ में दो-चार ही घर-आँगन में
आजकल संस्कार मिलते हैं
काश वैसे ही वो सदा मिलते
जैसे मतलब में यार मिलते हैं
ढूँढने से नहीं मुक़द्दर से
देवता रिश्तेदार मिलते हैं
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ग़ज़ल-
बात मुझको आपकी कड़वी लगी
किंतु सच है इसलिए अच्छी लगी
हो सके तो दूसरी कुछ दीजिए
ये चुनौती तो मुझे हल्की लगी
लोग समझे आग ठंडी हो गयी
कुछ पलों को जब उसे झपकी लगी
ख़ुद-ब-ख़ुद ही दर्द ग़ायब हो गया
घाव को जब चूमने मक्खी लगी
क्या हुआ गर मुफ़लिसी को आज भी
मुर्ग़ जैसी घास की सब्ज़ी लगी
माँजकर बर्तन दबाया पैर जब
सासजी को तब बहू अच्छी लगी
भूल कैसे जाएँ हम वो रात जो
और रातों से हमें लम्बी लगी
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ग़ज़ल-
आजकल किरदार की क़ीमत नहीं
मैं तुम्हारी राय से सहमत नहीं
एक मुँह से बात दो करते हो तुम
और कहते हो मेरी इज़्ज़त नहीं
गिर चुका है वाक़ई अब वो बहुत
आदमी पर ये ग़लत तोहमत नहीं
वो तुम्हें पहचानता है, ठीक है
फिर भी अच्छी साँप की सोहबत नहीं
अपनी मेहनत में कमी तुम मत करो
साथ देगी कब तलक क़िस्मत नहीं
दिल तुम्हारा चल रहा है किस तरह
साँस लेने की अगर फ़ुरसत नहीं
उम्र लग जाती है पाने में इसे
एक दिन का खेल ये शोहरत नहीं
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ग़ज़ल-
जो नहीं है उसी की चाहत है
नाम शायद इसी का फ़ितरत है
जैसी नीयत है वैसी बरकत है
ये कहावत नहीं हक़ीक़त है
हाथ खाली है दिल में ग़ैरत है
ये तो मुझपे ख़ुदा की रहमत है
हम परेशान तो रहेंगे ही
हर अमल जब ख़िलाफ़-ए-क़ुदरत है
दिल से माँ-बाप की दुआ ले लो
ज़िंदगी की इसी में राहत है
झूठ सच में बदल नहीं सकता
जो हक़ीक़त है वो हक़ीक़त है
– डॉ. हरि फैज़ाबादी