ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
एक अंजान सफ़र पर निकला
मैं तेरी याद पहनकर निकला
चोट खा-खा के दुआएँ लौटीं
जिसको पूजा वही पत्थर निकला
पी गया ख़ून-पसीना मेरा
कितना कमज़र्फ़ समंदर निकला
जब भी निकला वो अयादत को मेरी
ले के अल्फ़ाज़ के ख़ंजर निकला
मैं तेरी दीद की हसरत ओढ़े
जिस्म की क़ैद से बाहर निकला
मेरी मैयत को लगाया कांधा
ग़ैर था, आप से बेह्तर निकला
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ग़ज़ल-
ज़िंदा मंज़िल की आस रहने दे
अपने पाँवों में प्यास रहने दे
मेरी चमड़ी उधेड़ ले लेकिन
आबरू का लिबास रहने दे
तल्ख़ियाँ मत उँडेल रिश्तों पर
घर में थोड़ी मिठास रहने दे
मुश्किलें आई हैं तो जाएँगी
हौसले मत उदास रहने दे
आदमी है तो आदमीयत भी
ऐ बशर! अपने पास रहने दे
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ग़ज़ल-
ख़ून में डूबी मेरी हसरत मिली
इस अदा से आपकी चाहत मिली
ज़िंदगी के पाँव दाबे उम्र भर
तब बदन की क़ैद से मोह्लत मिली
जी लिए ख़्वाबों के तल्वे चाट कर
हम ग़रीबों को भी क्या क़िस्मत मिली
धर्म पढ़ने में गँवा दी उसने उम्र
धर्म करने की कहाँ फ़ुर्सत मिली
पी लिया नन्हे फ़रिश्तों का लहू
तब अमीरे-शह्र को राहत मिली
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ग़ज़ल-
लहू नदियों का पीता आ रहा है
समन्दर ने अभी तक क्या किया है
उधर हैं ख़्वाहिशें अनशन पे बैठीं
इधर मजबूरियों का जमघटा है
तेरी जन्नत तो घर में रो रही है
कहाँ जन्नत को बाहर ढूँढता है
तबस्सुम पाल कर रखिए लबों पर
ये लोगों में मुहब्बत बाँटता है
फ़क़त दो रोटियाँ माँगी थीं उसने
अभी तक मौत से वो लड़ रहा है
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ग़ज़ल-
वफ़ा के गुल्सितां से तोड़ लाये
समर रंजो-अलम के तोड़ लाये
मैं हाथों से पकड़ पाया न जुगनू
ज़बां से वो सितारे तोड़ लाये
बड़ी मुश्किल से उनकी चाहतों के
फ़क़त दो-चार लम्हे तोड़ लाये
चमन से यादों के हम जब भी गुज़रे
हरे ज़ख़्मों के पत्ते तोड़ लाये
ग़रीबी, बेबसी, बेरोज़गारी
तुम्हारे दर से बच्चे तोड़ लाये
रियाकारी, अदाकारी, तअस्सुब
सियासत के शजर से तोड़ लाये
– डॉ. हातिम जावेद