ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जहाँ ख़ुश हैं सभी अपनी ज़मीं से
वहाँ फिर क्यों न हों सपने हसीं से
सफ़र में जब क़दम ये डगमगाए
मेरा दामन पकड़ लेना यकीं से
परिन्दें गुनगुनायेंगे यहीं पर
मगर इक पेड़ तो लाओ कहीं से
उठाये फन गए हैं उस तरफ जो
विषैले नाग वो गुज़रे यहीं से
तुम्हीं ने आँसुओं को दी तसल्ली
शिकायत है मगर फिर भी तुम्हीं से
जहाँ पर पाँव में होती है जुम्बिश
नये रस्ते निकलते हैं वहीं से
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ग़ज़ल-
हवा को आज़मा कर देखना था
कोई दीपक जला कर देखना था
वो कैसी चीख थी गलियों में उसकी
दरीचे में भी आकर देखना था
कहीं बैठा न हो चंदा फ़लक पर
ज़रा बादल हटा कर देखना था
बदलती करवटों में रात को भी
ग़ज़ल इक गुनगुनाकर देखना था
अगर चाहत हो गहरी नींद की तो
पसीने को बहाकर देखना था
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ग़ज़ल-
उड़ानों की हर इक सीमा गगन पे आ के रूकती है
प्रथम सीढ़ी सफलता की सपन पे आ के रूकती है
यहाँ खरगोश को भी मात दे जाता है इक कछुआ
विजय की हर कसौटी तो लगन पे आ के रूकती है
बड़ी ही खोखली लगती वहाँ सम्मान की बातें
जहाँ औरत की हर चर्चा बदन पे आ के रूकती है
न ये जज़्बात खो जाए कहीं वज़्नों के मेले में
ग़ज़ल की क़ामयाबी तो कहन पे आ के रूकती है
घरों में कैद रहते हैं उन्हें एहसास क्या होगा
नज़र इन तितलियों की क्यों चमन पे आ के रूकती है
न जाने कौन-सी मिट्टी ख़ुदा ने दिल में है डाली
उगे हर ख़्वाब की सीमा कफ़न पे आ के रूकती है
– डॉ. भावना